Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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१२२ : जैन पुराणकोश
चन्द्रचूड - एक विद्याधर नृप । यह राजा बालेन्दु का पुत्र और व्योमेन्द्र का पिता था। पपु० ५.५२
चन्द्रचूल - ( १ ) भरत क्षेत्र के मलय राष्ट्र में रत्नपुर नगर के राजा प्रजापति और उसकी रानी गुणकान्ता का पुत्र । कुबेर सेठ की पुत्री कुबेरदत्ता को बल पूर्वक अपने आधीन करते हुए देख वैश्य समूह द्वारा शिकायत किये जाने पर राजा ने इसे मारने का आदेश दे दिया था किन्तु मंत्री के परामर्श से यह संयमी हो गया। अन्त में यह चतुविध आहार का त्याग करके आराधना पूर्वक मर गया और इसने देव पद पाया । मपु० ६७.९०-१४६
(२) विजयार्घ की दक्षिणश्रेणी में नित्यालोक नगर का राजा । यह चित्रांगद का पिता था। इसकी रानी मनोहरी से इसके छः युगल पुत्र हुए थे । मपु० ७१.२४९-२५२
(३) वृषभदेव के सत्तरवें गणधर । मपु० ४३.६४, हपु० १२.६७ चन्द्रज्योति - राम का सहायक एक विद्याधर राजा । पपु० ५४.३४-३६ चन्द्रतिलक - विजयार्ध की उत्तरश्रेणी में कनकपुर नगर के राजा गरुडवेग और उसकी रानी धृतिषेणा का छोटा पुत्र । दिवितिलक इसका बड़ा भाई था । मपु० ६३. १६४-१६६
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चन्द्रदत्त पोदनपुर-नरेश, रानी देखिला का पति इन्द्रवर्मा का पिता । मपु० १० ७२.२०४ २०५
चन्द्रदेव -- जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.४०
चन्द्रधर - आगामी तीसरा बलभद्र । हपु० ६०.५६८
चन्द्रनख - रावण का एक योद्धा । इसने राम के काल नामक योद्धा के साथ युद्ध किया था । पपु० ५७.४९-५२, ६२.३६
चन्द्रनखा - रत्नश्रवा और केकसी की पुत्री । यह दशानन की बहिन, खरदूषण की पत्नी, शम्बूक और सुन्द नामक पुत्रों तथा अनंगपुष्पा कन्या की जननी थी । इसने राम को अपना पति बनाना चाहा था, किन्तु राम के द्वारा उसका निवेदन स्वीकार न किये जाने पर यह लक्ष्मण के पास गयी । लक्ष्मण से भी हताश होकर इसने अपना रूप क्षत-विक्षत कर लिया और अपने पति खरदूषण से लक्ष्मण के आरोपित दुर्व्यवहार की शिकायत की। इसने अपने पति को लक्ष्मण से युद्ध करने के लिए विवश कर दिया। युद्ध में खरदूषण मारा गया । पपु० ७.२२२-२२५, १९.१०१-१०२, ४१.४०-४४, १०९-११२, ४४.१२० राम-रावण युद्ध में रावण का वध होते ही मन्दोदरी के साथ इसने भी शशिकान्ता आर्यिका से दीक्षा ले ली । पपु० ७८.९४-९५ 'चन्द्रनिकर - रावण का एक योद्धा । मारीच आदि के साथ इसने शत्रु
सेना को पीछे हटाया था । पपु० ७४.६१
चन्द्रपर्वत - विजयार्ध की दक्षिणश्रेणी का एक सुन्दर और सुरक्षित नगर । हपु० २२.९७ चन्द्रपुर (१) विजयर्थ की दक्षिणी का एक सुन्दर और सुरक्षित
नगर । मपु० १९.५२-५३, ७१.४०५
(२) भरतक्षेत्र का एक सुन्दर नगर । यहाँ काश्यपगोत्री महासेन राजा राज्य करता था । उसकी रानी लक्ष्मणा ने तीर्थंकर चन्द्रप्रभ को जन्म दिया था । मपु० ५४.१६३ १७०, पपु० २०.४४
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चन्द्रचूड-चन्द्रप्रभ
(३) इसी नगर में राजा हरि और उसकी रानी श्रीधरा के व्रतकीर्तन नाम का पुत्र हुआ था । पपु० ५.१३५
चन्द्र प्रज्ञप्ति दृष्टिवाद बंग के पांच भेदों में से परिकर्म त का प्रथम भेद । इसमें छत्तीस लाख पाँच हजार पदों के द्वारा चन्द्रमा की भोगसम्पदा का वर्णन है । पु० १०.६१-६३ चन्द्रप्रतिम— देवगीतपुर नगर निवासी चन्द्रमण्डल और उसकी भार्या सुप्रभा का पुत्र । विद्याधर सहस्रविजय के साथ इसका युद्ध हुआ । इसे शक्ति लगी । भरत ने शक्ति हटाकर उसे जीवन दिया । पपु० ६४.२४-३९
चन्द्रप्रभ - अष्टम तीर्थंकर । भरतक्षेत्र स्थित चन्द्रपुर नगर के इक्ष्वा
कुवंशी, काश्यपगोत्री राजा महासेन और रानी लक्ष्मणा के पुत्र । इनका गर्भावतरण चैत्र कृष्णा पंचमी और जन्म शक्र योग में पौष कृष्णा एकादशी को हुआ था । इनका वर्ण श्वेत था । जन्म से ही ये तीन ज्ञान के धारी हो गये थे । मपु० २.१२९, ५४.१६३, १७० १७३, पपु० १.७, २०.६३, हपु० १.१०, पापु० १.३ ये तीर्थंकर सुपार्श्व के नौ सौ करोड़ सागर का समय बीत जाने पर जन्मे थे । इनकी आयु दस लाख पूर्व और शारीरिक ऊँचाई एक सौ पचास धनुष थी । मपु० ५४. १७८ - १७९, पपु० २०.८४, ११९ दो लाख पचास हजार पूर्व समय बीतने पर इनका राज्याभिषेक हुआ था । एक दिन शरीर की नश्वरता पर उनके चिन्तन से वे विरक्त हो गये उन्होंने अपने पुत्र वरचन्द्र को राज्य में अभिषिक्त किया। पौष कृष्णा एकादशी के दिन अनुराधा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ ये दीक्षित हुए और इन्हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हो गया। दूसरे दिन नलिन नगर में सोमदत्त नृप के यहाँ पारणा की थी । घातिया कर्मों को नाश कर फाल्गुन कृष्णा सप्तमी के दिन ये केवली हुए। ये चौंतीस अतिशयों से युक्त अष्टप्रातिहार्यो से विभूषित थे। इनकी सभा में दत्त आदि तेरानवें गणधर, दो हज़ार पूर्वधारी, आठ हजार अवधिज्ञानी, दो लाख चार सौ उपाध्याय दस हजार केवलज्ञानी पौदह हजार विक्रिया विषारी, आठ हजार मन:पर्ययज्ञानी, सात हजार छः सौ वादी मुनि तथा वरुणा आदि तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएं थीं। अनेक देशों में विहार कर इन्होंने अन्त में सम्मेदगिरि पर एक हज़ार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण किया। एक मास तक सिद्धशिला पर स्थिर रहने के बाद फाल्गुन कृष्णा सप्तमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र और अपर वेला में सिद्ध हुए थे । मपु० ५४.१९५, २१४-२७८, पपु० १.७, २०.४४, ६१, ६३, हपु० ६०.१८९, ३८५-३८७ सातवें पूर्वभव में ये पुष्करद्वीप सम्बन्धी पूर्व मेरु के पश्चिम में स्थित सुगन्ध देश के श्रीवर्मा नामक राजा थे । पाचवें पूर्वभव में श्रीप्रभ विमान में श्रीधर नामक देव, चौथे में अलका देशस्व-अयोध्या के अतिसेन नामक नृप, तीसरे में अच्युतेन्द्र दूसरे में पूर्वधातकीखण्ड में मंगलायती देश के रत्नसंबंध नगर के पद्मनाभ नामक नृप, पहले में वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र हुए थे । मपु० ५४.७३, १६२
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