Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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सायिकज्ञान-क्षेमकर
जैन पुराणकोश : १०३ चारित्रमोहनीय कर्म के पूर्ण क्षय से उत्पन्न होती है। मपु० २४. क्षीरपयोधर-उत्सर्पिणीकाल सम्बन्धी अतिदुःषमा काल के आरम्भ में ५६, ६२, ३१७
सात दिन तक जल और दूध की निरन्तर वर्षा करनेवाले मेघ । मपु० सायिकज्ञान-नौ क्षायिक-शुद्धियों में प्रथम क्षायिक-शुद्धि । यह ज्ञानावरण ७६.४५४-४५५ कर्म के भय से उत्पत्न होती है । मपु० २४.५६-५८
क्षीरवन-एक वन । इसो वन में मर्कट देव ने प्रद्य म्न को मुकुट, औषधि क्षायिकदर्शन–नी क्षायिक-शुद्धियों में दूसरी क्षायिक-शुद्धि । यह ___ माला, छत्र और दो चमर प्रदान किये थे । मपु० ७२.१२०
दर्शनावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होती है। मपु० २४.५६,६०.६५ ।। क्षीरवर-मध्यलोक का पाँचवाँ द्वीप । हपु० ५.६१४ सायिकवान-नौ क्षायिक-शुद्धियों में पांचवीं क्षायिकशुद्धि, यह दानान्त- क्षीरसागर-क्षीर-समुद्र । इसके जल से इन्द्र तीर्थकरों का जन्माभिषेक राय कर्म के क्षय से उत्पन्न होती है । मपु० २४.५६ ।।
करता है और दीक्षा के समय केशलोंच करने पर उनके केशों का क्षायिकभाव-कर्मों के नष्ट हो जाने पर जीव के उत्पन्न भाव । इनके इसी समुद्र में क्षेपण करता है । मपु० १३.११०-११२, १६.२१५,
सद्भाव में आत्मा इन्हीं में शाश्वत तन्मय रहता है । मपु० ५४.१५५ ७३.१३१, हपु० २.४२, ५४, ९.९८, वीवच० ९.१२ सायिकभोग-नौ क्षायिक-शुद्धियों में सातवीं क्षायिक-शुद्धि। यह क्षीरनाविणी-एक रस-ऋद्धि। इससे भोजन में दूध का स्वाद आने
भोगान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होती है । मपु० २४.५६ ___ लगता है । मपु० २.७२, ५९.२५७ क्षायिकलब्धि-सहयोग और अयोग केवलियों को प्राप्त अनन्त सुख, क्षीरोदसागर-क्षीरवर द्वीप को घेरे हुए पाँचवाँ समुद्र । हपु० ५.६१४ हपु० ३.८६
क्षीरोदा-विदेह को एक विभंग नदी। यह निषध पर्वत से निकलकर सायिक लाभ-नौ क्षायिक-शुद्धियों में इस नाम की शुद्धि । यह लाभा- महानदी सीतोदा में प्रवेश करती है । मपु० ६३.२०७, हपु० ५.२४१ न्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होती है। मपु० २४.५६
क्षुषा-इस नाम का एक परोषह-मार्ग से च्युत न होने के लिए भूखक्षाविक वीर्य-नौ क्षायिक-शुद्धियों में अन्तिम शुद्धि । यह वोर्यान्तरायकर्म ___ जनित वेदना को सहना । मपु० ३६.११६ ___ के क्षय से उत्पन्न होती है । मपु० २४.५६
क्षुयवरोधन-दुर्योधन का वंशज, पाण्डवों पर उपसर्ग कर्ता । इसने प्रतिसायिक शुद्धि-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मों के मायोग में ध्यानस्थ पाण्डवों को अग्नि में तपे हुए लोहे के मुकुट, कड़े क्षय से उत्पन्न शुद्धियाँ। ये नौ होती हैं-१. क्षायिकज्ञान २.
तथा कटिसूत्र आदि पहनाये थे । हपु० ६५.१८-२० अपरनाम कुर्यधर । क्षायिकदर्शन ३. क्षायिक सम्यक्त्व ४. क्षायिक-चारित्र ५. क्षायिक- पापु० २५.५७, ६२-६५ दान ६. भायिकलाभ ७. क्षायिकभोग ८. क्षायिक उपभोग ९.
झुग्ध-राम का एक योद्धा । इसने रावण के योद्धा क्षोभण के साथ युद्ध क्षायिक वीर्य । मपु० २४.५६-६६ दे० क्षायिक लब्धि
किया था । पपु० ६२.३८ क्षायिक सम्यक्त्व-नौ क्षायिक-शुद्धियों में तीसरी क्षायिक-शुद्धि । यह क्षुल्लक-दसवीं प्रतिमा का धारक साधु । यह पाँच समितियों और दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होती है । हपु० ३.१४४
तीन गुप्तियों के साथ पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का क्षायोपशमिक-सम्यग्दर्शन का एक भेद। यह दर्शनमोहनीय कर्म के पालन करता है । ऐसा व्रती घर पर भी रह सकता है । राजा सुविधि क्षयोपशम से उत्पन्न होता है । हपु० ३.१४४ ।
ऐसा ही व्रती था। मपु० १०.१५८-१७० क्षार-अवसर्पिणी काल के अन्त में सरस, विरस, तीक्ष्ण, रुक्ष, उष्ण क्षेत्र-(१) जीव आदि पदार्थों का निवास स्थान-लोक । मपु० ४.१४
और विष नाम के मेघों के क्रमशः बरसने के पश्चात् सात दिन तक (२) छः कुलाचलों से विभाजित सात क्षेत्र, भरत, हैमवत, हरि, खारे पानी की वर्षा करनेवाले मेघ । मपु० ७६.४५२-४५३
विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत । मपु० ४.४९, ६३.१९१क्षितिवर-राम का अश्वरथासीन योद्धा । पपु० ५८.१२
१९२, पपु० ३.३७ क्षितिसार-भरत चक्रवर्ती के महल का कोट । मपु० ३७.१४६
___ क्षेत्रज्ञ-(१) जीव के स्वरूप का ज्ञाता । मपु० २४.१०५ क्षीणकषाय-बारहवाँ गुणस्थान। इसमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, (२) सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद-इसमें शुद्धात्मा के स्वरूप
मोहनीय और अन्तराय कर्म का क्षय हो जाता है। मपु० २०.२६२, का वर्णन है । मपु० ३९.१६५, १८८ हपु० ३.८३
(३) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२१ क्षीरकदम्ब--जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र के धवल देश में स्थित क्षेत्रपरिवर्तन-असंख्य प्रदेशी लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में उत्पन्न स्वतिकावती नगरी का निवासा एक विद्वान् ब्राह्मण । यह इसी होकर समस्त प्रदेशों में जीव का जन्म-मरण होना । वीवच० ११,२९ नगर के राजा विश्वावसु के पुत्र वसु, अपने पुत्र पर्वत और दूसरे देश क्षेत्रवृद्धि-दिग्वत के पाँच अतिचारों में पाँचवाँ अतिचार-मर्यादित क्षेत्र से आये हुए नारद का गुरु था। आयु के अन्त में इसने संयम धारण की सीमा बढ़ा लेना। हपु० ५८.१७७ किया और संन्यासमरण के द्वारा यह स्वर्ग में देव हुआ। मपु० ६७. क्षेमकर-(१) तीसरे मनु/कुलकर । इनकी आयु अटट वर्ष प्रमाण थी। २५६-२५९, ३२६
शरोर आठ सौ धनुष की अवगाहना से युक्त था। ये सन्मति कुलकर क्षीरधारा-किंपुरुष देव की देवी। यह पूर्वभव में कुलवान्ता नाम की के पुत्र थे। इन्होंने सिंह व्याघ्र आदि से भयभीत प्रजा के भय को दूर अत्यन्त दरिद्र स्त्री थी। पपु० १३.५९
किया। इसीलिए उनको यह नाम मिला । ये क्षेमन्धर के पिता थे।
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