Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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किरणमणला-कौति
८६ : जैन पुराणकोश किरणमण्डला-विजयाध पर्वत की उत्तरश्रेणी में स्थित गुंजा नगर के
राजा सिंहविक्रम के पुत्र सकलभूषण की आठ सौ पलियों में प्रधान पत्नी । मरकर यह तो विद्य द्वक्त्रा नाम की राक्षसी हुई और इसका पति सकलभूषण मुनि हुआ था । मुनि अवस्था में सकलभूषण पर इसने
अनेक उपसर्ग किये थे । पपु० १०४.१०३-११७ किरात-म्लेच्छों का एक देश। इसे भरतेश की सेना ने जीता था। ___मपु० २९.४८ किरीट-सम्राटों के शिर का आभूषण। यह स्वर्ण निर्मित होता था।
मपु० ११.१३३ किरीटी-(१) छोटा किरीट। इसे स्त्री और पुरुष दोनों धारण करते
थे। मपु० ३.७८
(२) अर्जुन । हपु० ५५.५ किलकिल-विजयाध पर्वत की उत्तरश्रेणी का एक नगर । मपु० १९.७८,
८७, ६८.२७१-२७२ किल्विषिक-वाद्य वादक देव । ये अन्य जातियों के देवों के आगे-आगे
नगाड़े बजाते हुए चलते हैं । इनके पापकर्म का उदय रहता है । स्वल्प पुण्य के अनुसार स्वल्प ऋद्धियाँ ही इन्हें प्राप्त रहती हैं। ये अन्त्यजों की भांति अन्य देवों से बाहर रहते हैं। मपु० २२.२०, ३०, हपु०
३.१३६, वीवच० १४.४१ किष्किन्ध-(१) दक्षिण भारत का एक पर्वत । भरतेश के सेनापति ने यहाँ के राजा को अपने आधीन किया था । मपु० २९.९०
(२) एक नगर, सुग्रीव की निवासभूमि । यह विंध्याचल पर्वत के ऊपर स्थित है । मपु० ६८.४६६-४६७, हपु० ११.७३-७४
(३) प्रतिचन्द्र विद्याधर का ज्येष्ठ पुत्र और अन्ध्रकरूढ़ि का अग्रज । आदित्यपुर के राजा विद्यामन्दर की पुत्री श्रीमाला ने स्वयंवर में इसे ही वरा था। पृथ्वीकर्णतटा अटवी के मध्य में स्थित धरणीमौलि पर्वत पर इसने अपने नाम पर एक किष्किन्धपुरी की । रचना की। इसके दो पुत्र और एक पुत्री थो। पुत्रों के नाम थेसूर्यरज और यक्ष रज तथा पुत्री का नाम था सूर्यकमला । अन्त में यह निर्ग्रन्थ हो गया था। पपु० ६.३५२-३५८, ४२५-४२६, ५०८
५२४, ५७० किष्किन्धकाण्ड-अंगद द्वारा अपहृत लंका का एक प्रसिद्ध हाथी । पपु०
७१.३ किष्कन्धपुर-दक्षिण समुद्रतटवर्ती देवकुरु के समान सुन्दर पृथ्वीकर्ण
तटा अटवी के मध्य स्थित धरणीमौलि पर्वत पर राजा किष्किन्ध द्वारा बसाया गया नगर । रावण-विजय के पश्चात् अयोध्या आने पर राम ने नल और नील को यहाँ का शासक नियुक्त किया था । पपु० ६.
५०८-५२०,८८.४० किष्कु-(१) शाखामृग-द्वीप के मध्य में स्थित एक पर्वत । पपु० ६.८२
(२) क्षेत्र का एक प्रमाण-विशेष । यह दो हाथ प्रमाण का होता है । दो किष्कुओं का एक दण्ड और आठ हजार दण्डों का एक योजन होता है । हपु० ७.४५-४६
किकुपुर-वानरवंशी राजा श्रीकण्ठ द्वारा वानरद्वीप के किष्कु पर्वत
की समतल भूमि पर बसाया गया नगर । यह चौदह योजन लम्बा था और इसको परिधि बियालीस योजन से कुछ अधिक थी। इसकी दक्षिण दिशा में इन्द्र विद्याधर द्वारा कलाग्नि विद्याधर के पुत्र यम की लोकपाल के रूप में नियुक्ति की गयी थी। किष्कुप्रमोद इसका अपरनाम था । पपु० ६.१-५, ८५.१२०-१२३, ७.११४-११५, ९.
१३ किकुप्रमोद-एक नगर । किष्कुपुर का अपरनाम । पपु० ९.१३ दे०
किष्कुपुर कीचक-(१) चूलिका नगरी के राजा चूलिक और उसकी पत्नी विकच
के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र । यह विराट नगर में द्रौपदी पर मोहित हो गया था। द्रौपदी ने इसकी यह धृष्टता भीम को बतलायो जिससे कुपित होकर द्रौपदी का रूप धरकर भीम ने इसे मुक्कों के प्रहार से खूब पीटा । इस घटना से विरक्त होकर इसने रतिवर्धन मुनि के पास दीक्षा धारण कर ली । एक यक्ष ने इसके चित्त की विशुद्धि की परीक्षा ली । इस परीक्षा में यह सफल हुआ। मन की शुद्धि के फलस्वरूप इसे अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। इसके पूर्व पाँचवें भव में यह क्षुद्र नामक म्लेच्छ था, चौथे पूर्वभव में यह धनदेव वैश्य का कुमारदेव नाम का पुत्र हुआ, तीसरे पूर्वभव में यह अपनी माता के जीव का कुत्ता हुआ और दूसरे पूर्वभव में यह सित नामक तापस का मधु नाम का पुत्र हुआ। इसने एक मुनि से दीक्षा ली जिसके फलस्वरूप इसे पहले पूर्वभव में स्वर्ग मिला। वहाँ से च्युत होकर यह इस पर्याय को प्राप्त हुआ। हपु० ४६.२३-२५ पाण्डव पुराण में इसका वध भीम के द्वारा हुआ बताया गया है। पापु० १७.२८९-२९५
(२) एक वंश । भुजंगेश नगरी के कीचक मारे गये थे। मपु० ७२.२१५ कीति-(१) एक आचार्य । इन्होंने वर्द्धमान जिनेन्द्र द्वारा कथित रामकथारूप अर्थ आचार्य प्रभव से प्राप्त किया था। पपु० १.४१-४२
(२) एक दिक्कुमारी व्यन्तर देवी । यह गर्भावस्था में तीर्थंकर की माता की स्तुति करती है। इसकी आयु एक पल्य होती है । यह केसरी नाम के विशाल सरोवर के कमलों पर निर्मित भवन में रहती है । छः मातृकाओं में यह इन्द्र की एक वल्लभा है । मपु० १२.१६३-१६४, ३८.२२६, ६३.२००, पपु० ३.११२-११३, हपु० ५.१२१, १३०१३१, वीवच० ७.१०५-१०८।
(३) परमेष्ठियों के गुणरूप सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद । इसके प्राप्त होने पर पारिव्राज्य का लक्षण प्रकट होता है। जो कीर्ति की इच्छा का परित्याग करके अपने गुणों की प्रशंसा करना छोड़ देता है और महातपश्चरण करता हुआ स्तुति तथा निन्दा में समानभाव रखता है वह तीनों लोकों के इन्द्रों के द्वारा स्वतः प्रशंसित होता है । मपु० ३९.१६२-१६५, १९१
(४) कुरुवंश में उत्पन्न हुए चक्रवर्ती महापद्म की वंशपरम्परा में राजा कुलकीर्ति के पश्चात् हुआ एक नृप । सुकीर्ति इन्हीं के बाद इस
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