Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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कृतज्ञ-कृष्ण
जैन पुराणकोश : ९५
की मृत्यु होने पर पद्म को सम्बोधित कर उनका मोह दूर किया । पपु० ११८.४०-६३, ७३-१०५ इसका अपरनाम कृतान्तवक्र था।
पपु० १.९८ कृतान्तान्त-सौधर्मेन्द्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२९ कृतार्थ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३० कृति-अग्रायणीय पूर्व की पंचम वस्तु के चौथे कर्म प्रकृति नामक प्राभूत
के चौबीस योगद्वारों में प्रथम योगद्वार । हपु० १०.८१-८२ कृतिकर्म-अंगबाह्य श्रुत के चौदह प्रकीर्णकों में छठा प्रकीर्णक-सामायिक
के समय चार शिरोनति, मन-वचन-काय से दो दण्डवत् नमस्कार और
बारह आवर्त करना । हपु० २.१०३, १०.१३३ कृतिधर्म-राजा उग्रसेन के चाचा शान्तन के पौत्र हृदिक का ज्येष्ट पुत्र,
दृढ़धर्मी का बड़ा भाई । हपु०४८.४०-४२ कृतिका-एक नक्षत्र । तीर्थंकर कुन्युनाथ इसी नक्षत्र में जन्मे थे। पप०
२०.५३ कृती-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३० कृप-जरासन्ध के पक्ष का एक नृप। मपु०७१.७८ कृपवर्मा-जरासन्ध के पक्ष का एक नृप । मपु० ७१.७८ कृपाण-खड्ग । सैन्य शस्त्र । मपु० १०.७३ कृपालु-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१६ कृषिकर्म-प्रजा को आजीविका के लिए वृषभदेव द्वारा बताये गये षटकर्मों
में तृतीय कर्म-भूमि को जोतना-बोना । मपु० १६.१७९-१८१, हप०
नगरी के राजकुमार मधु से इसका विवाह हुआ था। पपु० ११.३०९
३१०, १२.१७-१८ कृतज्ञ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८० कृतपूर्वागविस्तर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.१९२ कृतमाल-विजयाध पर्वत का निवासी एक व्यन्तर । इसने भरत चक्रवर्ती
को चौदह आभूषण भेंट में दिये थे तथा विजया पर्वत की गुफा के द्वार से प्रवेश करने का उपाय बताया था। मपु० ३१.९४, १०९-
११६, ३५.२३, हपु० ११.२१-२२ कृतमाला-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी। भरतेश की सेना यहाँ
ठहरी थी । मपु० २९.६३ कृतयुग-युग के आदि ब्रह्मा वृषभदेव द्वारा प्रारम्भ किया गया कर्मयुग ।
तृतीय काल के अन्त में आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन इसका शुभारम्भ हुआ था। इस काल में असि-मसि आदि छः कर्मों द्वारा प्रजा के अत्यन्त संतुष्ट एवं सुखी होने के कारण यह युग कृतयुग कहलाया । मपु० ३.२०४,१६.१८९-१९०४१.५, ४६, पपु०
३.२५९, हपु० ९.४० कृतलक्षण-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८० कृतवर्मा-(१) वृषभदेव का वंशज, काम्पिल्यपुर का नृप, जयश्यामा का
पति और तीर्थकर विमलनाथ का जनक । मपु० ५९.१४-१५, २१ पद्मपुराण में इसकी रानी का नाम शर्मा कहा गया है । पपु० २०.४९
(२) यादव पक्ष का एक अर्धरथ नृप । हपु० ५०८३ (३) दुर्योधन के पक्ष का एक राजा। इसे अर्जुन ने परास्त किया था। पापु० २०.१५१ कृतवीर-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित कौशल देश की अयोध्या नगरी
के इक्ष्वाकुवंशी सहस्रबाहु तथा रानी चित्रमती का पुत्र । इसने अपने मौसेरे भाई जमदग्नि को मारा था । मपु० ६५.५६-५८, १०५-१०६ कृतान्त-रावण के पक्ष का व्याघ्ररथासीन एक योद्धा । पपु० ५७.४९ 'कृतान्तकृत्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
१२९ कृतान्तवक्त्र-मथूरा के राजा मधु को जीतने को तत्पर शत्रुघ्न की सेना
का पद्म ( राम ) द्वारा नियुक्त सेनापति और राजा मधु के पुत्र लवणार्णव का हन्ता। पपु० ८९.३६, ८० इसने अवर्णवाद के कारण गर्भवती होते हुए भी सीता को सिंहनाद नाम की निर्जन अटवी में पद्म की आज्ञा से रोते हुए छोड़ा था। पपु० ९७.६१-६३, १५० अयोध्या में आये सकलभूषण मुनि से भवभ्रमण के दुःखों को सुनकर इसे वैराग्य हो गया और इसने पद्म के समक्ष उनसे दीक्षा लेने का प्रस्ताव रखा । पद्म ने इसे रोकना चाहा, पर वह अपने निश्चय पर दृढ़ रहा । इसकी दृढ़ता देखकर पद्म ने इससे प्रतिज्ञा करायी कि यदि निर्वाण न हो और देव योनि ही मिले तो संकट के समय वह 'उनको सम्बोधने अवश्य आये । इसे इसने स्वीकार किया और सकलभूषण मुनि से निर्ग्रन्थ-दीक्षा धारण को। पपु० १०७.१-१८ मरकर यह देव हुमा । स्वर्ग से आकर इसने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार लक्ष्मण
कृष्टिकरण-संज्वलन-चतुष्क की कषायों का उपसंहार कर उनके सूक्ष्म
सूक्ष्म खण्ड करना । यह अनिवृत्तिकरण नामक गुणस्थान में पूर्ण किया
जाता है । मपु० २०.२५९ कृष्ण-अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा नामक चोथे काल में उत्पन्न
शलाका पुरुष और तीन खण्ड के स्वामी नवें नारायण तथा भावी तीर्घकर । हपु० ६०.२८९, वीवच० १८.१०१, ११३ इनके जन्म से पूर्व कंस की पत्नी जोवद्यशा ने भिक्षा के लिए आये कंस के बड़े भाई अतिमुक्तक मुनि का उपहास किया । मुनि वचनगुप्ति का पालन नही कर सके और उसे बताया कि देवकी का पुत्र ही कंस का वध करेगा। जीवद्यशा से कंस ने यह बात सुनकर अपने बचाव के लिए वसुदेव और देवकी से यह वचन ले लिया कि प्रसूति काल में देवकी उसके पास ही रहेगी। देवकी के युगलों के रूप में तीन बार में छः पुत्र हुए । इन युगलों को नैगमर्ष देव इन्द्र को प्रेरणा से भद्रिलपुर की अलका वैश्या के आगे उसकी प्रसूति के समय डालता रहा और उसके मृत युगलों को देवकी को देता रहा । सातवें पुत्र के रूप में ये पैदा हुए तो इनकी रक्षार्थ वसुदेव और बलभद्र इन्हें नन्दगोप को देने के लिए ममुना पार करके आगे बढ़े। संयोग से नन्दगोप भी इसी समय उत्पन्न एक कन्या को लेकर इधर ही आ रहा था। वसुदेव और नन्द ने अपनी-अपनी बात कही। दोनों का काम बन गया। वसुदेव ने लड़की ले लीं और इन्हें नन्दगोप को दे दिया। कंस ने लड़की देखकर समझ लिया कि मुनि का कथन असत्य ही था। उसकी चिन्ता
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