Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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केकसी-केवलज्ञानलोचन
जैन पुराणकोश : ९७
३५, ९०.१०२-१०९, १२५-१२६, १३०, २५.३५ जब दशरथ को पिता के नगर के समीप छुड़वा दिया था। इस पर पुत्र पवनंजय ने सर्वभूतहित मुनि से अपने पूर्वभवों के वृत्तान्त सुनने से वैराग्य हो गया निश्चय किया कि यदि वह प्रिया को नहीं देखेगा तो मर जायगा। तो उसके वैराग्य की बात सुनकर भरत को भी वैराग्य हो गया था। इस निश्चय को जानकर इसने अपने कृत्य पर बहुत पश्चात्ताप भी दशरथ ने अपने प्रथम पुत्र पद्म को राज्य देने की घोषणा की तब किया था । पपु० १५.६-८, १७.७-२१, १८.५८-६६ भरत के वैरागी होने से दुखी हुई कैकया ने दशरथ से यह वर मांग ___ (२) विधु दंष्ट्र के वश में उत्पन्न गगनवल्लभ नगर की राजलिया कि राज्य भरत को मिले । परिस्थितिवश दशरथ ने यह वर पुत्री बालचन्द्रा के वंश में हुई एक कन्या और अर्धचक्री पुण्डरीक की दे दिया। पपु० ३१.५५-६१, ९५, ११२-११४ जब राम ने यह भार्या । पुण्डरीक ने इसे बन्धनमुक्त किया था। हपु० २६.५०-५३ निर्णय सुना तो पिता के वचन का पालन करने के लिए उन्होंने वन (३) राजा जरासन्ध की पुत्री और राजा जितशत्रु की रानी। जाने का निर्णय कर लिया और भरत को समझाया कि वह पिता की वसुदेव ने महामन्त्रों से इसके पिशाच का निग्रह किया था। हपु० आज्ञा का पालन करें । जब सोता और लक्ष्मण के साथ राम वन को ३०४५-४७ जाने लगे तो राम को वन से लौटाने के लिए इसनें क्षमायाचना करते केतुमाल-विजयार्थ पर्वत की उत्तरश्रेणी का एक नगर । मपु० १९.८०, हुए कहा कि स्त्रीपने के कारण उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी । पपु० हपु० २२.८६ ३२.१२७-१२९ जब राम वन से लौटे तो भरत दीक्षित हो गये। केतुमाली-जरासन्ध का पुत्र । इसने यादवों के साथ युद्ध किया था। उनके दीक्षित होने पर पुत्र-वियोग से दुखित होकर इसने करुण रुदन हपु० ५२.३५, ४० किया था। राम, लक्ष्मण और सपत्नी जनों के वचनों से आश्वस्त केयूर-पुरुष तथा नारियों द्वारा समान रूप से पहना जानेवाला भुजाओं होकर आत्म-निन्दा करते हुए इसने कहा कि 'स्त्री के इस शरीर को के मूलभाग का आभूषण । मपु० ३.२७, १५४, ४.१८१, ५.२५७, धिक्कार हो जो अनेक दोषों से आच्छादित है। अन्त में निर्मल ७.२३५, पपु० ३.१९०, ७.४९, ११४.१२ सम्यक्त्व को धारण कर यह तीन सौ स्त्रियों के साथ पृथिवीमती केरल-मध्य आधखण्ड (दक्षिण भारत) का एक देश । यहाँ के निवासी आयिका के पास दीक्षित हुई और तप कर इसने आनत स्वर्ग में देव- मधुर, सरल और कलागोष्ठी में प्रवीण होते हैं । स्त्रियाँ सुन्दर होती पद पाया । पपु० ८६.११-२४, ९८.३९. १२३.८०
है । लवणांकुश ने यहां के राजा को पराजित किया था। मपु० १६. केकसी-कौतुकमंगल नगर के निवासी विद्याधर व्योम-बिन्दु और उसकी १५४, २९.७९, ९४, ३०.३०-३४, पपु० १०१.८१-८६
भार्या नन्दवती की छोटी पुत्री और कौशिकी की अनुजा। इन्द्र से केलोकिल-(१) राम का सहायक एक विद्याधर । पपू० ५४.३५ पराजित होने के पश्चात् अपनी विभूति को पुनः पाने के लिए सुमाली (२) इस नाम का एक नगर । यहाँ का राजा राम के पक्ष में के पुत्र रत्नश्रवा ने पुष्पवन में मानस्तम्भिनी विद्या की सिद्धि की। था । पपु० ५५.५९ साधनाकाल में रत्नश्रवा की परिचर्या के लिए व्योमबिन्दु ने इसे केवलशान-पृथक्त्व वित्त और एकत्व वितर्क शुक्ल ध्यानों द्वारा मोहनियुक्त किया। विद्या के सिद्ध होते ही व्योमबिन्दु ने इसका विवाह नीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के भेद से चतुर्दिक रत्नश्रवा के साथ कर दिया। इसके तीन पुत्र हुए और एक पुत्री । घातियाकर्मों के क्षय के पश्चात् उत्पन्न समस्त द्रव्य, उनके पर्याय तथा पुत्रों के नाम थे-दशानन, भानुकर्ण, और विभीषण और पुत्री का
लोक-अलोक का ज्ञान । यह अन्तर और बाह्य मल के नष्ट हो जाने नाम था चन्द्रनखा । पपु० ७.१२६-१४७, १६५, २२२-२२५,
पर उत्पन्न लोकालोक की प्रकाशिनी परम ज्योति है। मपु० २१. १०६.१७१
१८६, ३३.१३२, ३८.२९८, ३६.१८५, पपु० ४.२२, ८७. १५, केतक-नरक का कठोर करोंत जैसे पत्तोंवाला वन । पूर्वभव में जिन्होंने हपु० ९.२१०, वीअच० १.८ यह पांचों ज्ञानों में अन्तिम ज्ञान
पर-स्त्रियों के साथ रतिक्रीडा की थी उसके नारको जीव होने पर है और साक्षात् मोक्ष का कारण है । यह तीर्थंकरों का चतुर्थ कल्याणक उनसे अन्य नारकी आकर कहते हैं कि उसकी प्रिया उन्हें अभिसार है । मपु० ५७.५२-५३, हपु० ३.२६, १०.१५४-१५६ करने की इच्छा से केतकी के एकान्त वन में बुला रही है। वे उन्हें केवलज्ञानलोचन केवली मुनि-भगवान् वृषभदेव को सभा के सप्तविध वहाँ ले आकर तपायी हुई लोहे की गर्म पुतलियों के साथ आलिंगन मुनिसंघ का एक भेद । ये प्रश्न के बिना ही प्रश्नकर्ता के अभिप्राय कराते हैं । पपु० १०.४८-४९
को जानते हुए भी श्रोताओं के अनुरोध से प्रश्न के पूर्ण होने की केतम्बा-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी (केतवा)। भरतेश के प्रतीक्षा करते हैं। मपु० १.१८२ हपु० १२.७४, ये पृथक्त्ववितर्क सेनापति ने इस नदी को पार किया था। मपु० ३०.५७
नामक शुक्लध्यास से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन केतु-रावण-पक्ष का एक योद्धा । इसने राम-रावण युद्ध में भामण्डल के धातियाकर्मों का क्षय कर ज्योतिः स्वरूप केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं। साथ युद्ध किया था । पपु० ६२.३८
योगों का निरोध करने के लिए समुद्घात दशा में इनके आत्मा के केतमती-(१) विजया पर्वत को दक्षिणश्रेणी में स्थित आदित्यनगर के प्रदेश पहले समय में चौदह राजु ऊँचे दण्डाकार, दूसरे समय में कपटा
राजा प्रह्लाद की प्रिया और वायुगति (पवनंजय) की जननी । इसने कार, तीसरे समय में प्रतर रूप और चौथे समय में लोकपूरण रूप अपनी वधू अंजना को गर्भवती देखकर कुवचन कहते हुए उसे उसके हो जाते है । इसके पश्चात् ये आत्मप्रदेश इसी क्रम से चार समयों में
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