Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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९२ : जैन पुराणकोश कुरुमती-राजा श्लक्ष्णरोम की रानी तथा लक्ष्मणा की जननी । हपु०
कुरुराज-हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ का पुत्र मेघस्वर जयकुमार।
मपु० ३२.६८ कुरुवंश-वृषभदेव ने क्षत्रिय सोमप्रभ को बुलाकर उसे महामाण्डलिक
राजा बनाया था । यही सोमप्रभ वृषभदेव से कुरुराज नाम पाकर कुरु देश का प्रथम राजा हुआ। इसकी वंश-परम्परा में ही शान्ति कुन्थु और अर ये तीन तीर्थकर हुए। इसी वंश में अनेक राजाओं के शासन के पश्चात् राजा धृत का पुत्र धृतराज हुआ। इसकी तीन रानियां थीं । अम्बिका, अम्बालिका और अम्बा । इनमें अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और अम्बा से विदुर उत्पन्न हुए । राजा धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि सौ पुत्र थे । ये कौरव कहलाये और राजा पाण्डु के युधिष्ठिर आदि पाँच पुत्र थे। कौरव होते हुए भी ये पाण्डव कहलाये । राज्य को लेकर पाण्डव और कौरवों में परस्पर विरोध हो गया । फलतः यह राज्य दो भागों में विभाजित हो गया ।
हपु० ४५.१-७, ३२-४०, पापु० ४.२-१० कुरुविन्व–अलका नगरी के राजा विद्याधर अरविन्द का द्वितीय पुत्र
और हरिश्चन्द्र का भाई । इसका पिता अरविन्द दाह-ज्वर से पीड़ित था। अचानक एक छिपकली के रुधिर से पीड़ा कम हो जाने से उसने कुरुविन्द से एक बावड़ी बनवाकर उसे रुधिर से भरवाने के लिए कहा । वह पाप से डरता था अतः उसने पिता के लिए एक बावड़ी बनवा कर उसे लाक्षारस से भरवा दिया। जब उसे इस वापी के रुधिर को कृत्रिमता का बोध हुआ तो वह उसे मारने दौड़ा और गिर जाने से अपनी ही छुरी से मरण को प्राप्त हुआ। इस प्रकार हुई पिता की मृत्यु से उसको दुःख हुआ। मपु० ५.८९-९५, १०२-११६ करुविन्दा-कौशाम्बी नगरी के वणिक् बृहदघन की भार्या और अहिदेव
तथा महीदेव की जननी । इसके दोनों पुत्रों ने अपनी सम्पदा बेचकर एक रत्न खरीद लिया था। यह रत्न दोनों भाइयों में जिसके पास रहता वह दूसरे को मारने की इच्छा करने लगता था, अतः दोनों भाई उस रत्न को अपनी माता कुरुविन्दा को दे आये। इसके भी भाव विष देकर दोनों पुत्रों को मारने के हुए परन्तु ज्ञान को प्राप्त हो जाने से इसने वह रत्न यमुना में फेंक दिया । एक मच्छ यह रत्न खा गया । धीवर उस मच्छ को पकड़कर इसके ही घर बेच गया । इसकी पुत्री ने मच्छ काटते समय वह रत्न देखा । पुत्री के भाव भी अपने दोनों भाइयों तथा माँ को मारने के हुए । इसके पश्चात् परस्पर एक दूसरे का अभिप्राय जानकर उन्होंने उस रत्न को चूर-चूर कर फेंक
दिया। वे चारों विरक्त होकर दीक्षित हो गये । पपु० ५५.६०-६७ कुर्यधर-दुर्योधन का भानजा । पाण्डवों को ध्यान-मुद्रा में देखकर इसे
अपने मामा के वध का स्मरण हो आया। उस वध का बदला लेने के ध्येय से इसने पाण्डवों को अग्नि में तप्त लोहे के आभूषण पहिनाए थे। पापु० ५२.५७-६५ महापुराण में इसे कुर्यवर कहा गया है ।
मपु०७२.२६८-२७० कुर्यवर-दे० कुर्यधर ।
कुरुमती-कुलबर्षा कुलंकर-नाग नगर के राजा हरिपति और उसकी रानी मनोलूता का
पुत्र । पूर्वभव में यह विनीता नगरी के राजा सुप्रभ और रानी प्रह्लादना का पुत्र था और उसी भव में इसने भगवान् आदिनाथ के साथ ही दीक्षा ली थी। पर यह दीक्षा की चर्या का पालन नहीं कर सका और संसार में भ्रमण करता रहा। इस भव में राजा बनने के पश्चात् कुलकर ने अभिनन्दित मुनि के दर्शन किये। उनसे प्रबोध प्राप्त किया और उसने मुनि बनने की इच्छा प्रकट को, पर उसके मन्त्रियों और पुरोहित के प्रभाव से वह अपनी इच्छा पूर्ण नहीं कर सका । घटनाचक्र के प्रवाह में फंसकर उसने अपने प्राण गंवाये ।
पपु० ८५.४५-६२ कुल-(१) पिता का वंश । मपु० ३९.८५, ५९.२६१
(२) जीवों का कुल । अहिंसा महाव्रत के पालन में मुनि को आगमों में बताये हुए जीवों के कुलों का भी ध्यान रखना पड़ता है।
दे० कुलकोटि कुलकर-आर्य पुरुषों को कुल की भाँति इकट्ठे रहने का उपदेश देने से
इस नाम से सम्बोधित । अवसर्पिणी काल के सुषमा-दुःषमा नामक तीसरे काल की समाप्ति में पल्य का आठवाँ भाग काल शेष रह जाने पर चौदह युगादपुरुष उत्पन्न हुए । उनके नाम है
१. प्रतिश्रुति २. सन्मति ३. क्षेमकर ४. क्षेमंधर ५. सीमंकर ६. सीमंधर ७. विमलवाहन ८. चक्षुष्मान् ९. यशस्वान् १०. अभिचन्द्र ११. चन्द्राभ १२. मरुदेव १३. प्रसेनजित् और नाभिराज । इनमें प्रथम पाँच के समय में अपराधी को "हा" कहना ही पर्याप्त दण्ड था। अग्रिम पाँच के समय में "हा" और "मा" ये दोनों और अन्तिम चार के समय में "हा" "मा" और "धिक्" इन तीनों शब्दों का कथन दण्ड हो गया । आदि के सात कुलकरों के समय में माता-पिता सन्तान का मुख नहीं देखते थे । उनका पालन पोषण स्वतः होता था। मपु० ३.५५-५६, १२४-१२८, २११-२१५, २२९-२३७, पपु० ३.७५-८८, हपु० ७.१२३-१७६ भविष्य में उत्सर्पिणी के दुःषमा नामक दूसरे काल में भी इसी प्रकार सोलह युगादिपुरुष होंगे, उनका क्रम यह होगा-१. कनक २. कनकप्रभ ३. कनकराज ४. कनकध्वज ५. कनकपुंगव ६. नलिन ७. नलिनप्रभ ८. नलिनराज ९. नलिनध्वज १०. नलिनपुगव ११. पद्म १२. पद्मप्रभ १३. पद्मराज १४. पद्मध्वज १५. पद्मपुगव १६. महापद्म । मपु०७६.
४६०-४६६ कुलकीर्ति-कुरुवंश का एक राजा । हपु० ४५.२५ कुलकोटि-जीवों के कुल । ये पृथिवीकायिक जीवों के बाईस लाख,
जलकायिक और वायुकायिक के अट्ठाईस लाख, दो इन्द्रिय जीवों के सात लाख, तीन इन्द्रिय जीवों के आठ लाख, चार इन्द्रिय जीवों के नौ लाख, जलचर जीवों के साढ़े बारह लाख, पक्षियों के बारह लाख, चौपायों के दस लाख, छाती से सरकने वालों के नौ लाख, मनुष्यों के चौदह लाख, नारकियों के पचीस लाख और देवों के छब्बीस लाख होते हैं । हपु० १८.५६, ५९-६२ कुलचर्या-पन क्रियाओं में उन्नीसवीं क्रिया । वर्ण संस्कार हो जाने के
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