Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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८२ : जैन पुराणकोश
कारकट-काल
कारकट-एक नगर । मांसभोजी राजा कुम्भ के अपने नगर से इस नगर
में आ जाने से यह कुम्भकारकटपुर नाम से भी विख्यात हुआ। मपु०
६२.२०२-२१२ कारण-(१) कार्य का नियामक हेतु । इसके बिना कार्योत्पत्ति सम्भव
नहीं होती । इसके दो भेद हैं-उपादान और सहकारी (निमित्त) । कार्य की उत्पत्ति में मुख्य कारण उपादान और सहायक कारण सहकारी होता है । हपु० ७.११, १४
(२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४९ कार-शूद्रवर्ण का एक भेद । ये स्पृश्य और अस्पृश्य दोनों होते हैं ।
इनमें नाई, धोबी आदि स्पृश्य हैं। वे समाज के साथ रहते है। अस्पृश्य कारु समाज से दूर रहते हैं और समाज से दूर रहते हुए ही
अपना निर्दिष्ट कार्य करते हैं । मपु० १६.१८५-१८६ कारुण्य-संवेग और वैराग्य के लिए साधनभूत तथा अहिंसा के लिए
आवश्यक मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं में तृतीय भावना । इसमें दीन-दुखी जीवों पर दया के भाव होते हैं ।
मपु० २०.६५ कार्ण-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित आर्यखण्ड की उत्तरदिशा का एक
देश । महावीर ने विहार कर इस देश में धर्म का उपदेश दिया था।
हपु० ३.६-७ कार्तवीर्य-ईशावती नगरी का राजा और आठवें चक्रवर्ती सुभूम का पिता । इसकी रानी और सुभूम की जननी का नाम तारा था। गजपुर (हस्तिनापुर) नगर में कोरववंश में उत्पन्न हुए इसने कामधेनु के लोभ से जमदग्नि तपस्वी को मार डाला तथा यह भी जमदग्नि के पुत्र परशुराम द्वारा मारा गया था। गर्भवतो इसकी रानी तारा भयभीत होकर गुप्त रूप से कौशिक ऋषि के आश्रम में जा पहुंची। वहीं उसके पुत्र हुआ तथा भूमिगृह में उत्पन्न होने से उसका नाम सुभौम रखा गया था । पपु० २०.१७१-१७२, हपु० २५.८-१३ कार्पटिक-काशी के संभ्रमदेव की दासी का द्वितीय पुत्र, कूट का अनुज ।
पिता ने इन दोनों भाइयों को जिन मन्दिर में सेवार्थ नियुक्त कर दिया था, अतः मरकर पुण्य के प्रभाव से दोनों व्यन्तर देव हुए । इसका नाम सुरुप और इसके भाई का नाम रूपानन्द था। पपु०
५.१२२-१२३ कार्मण-पाँच प्रकार के शरीरों में पांचवें प्रकार का शरीर । यह
शरीर सर्वाधिक सूक्ष्म होता है। प्रदेशों की अपेक्षा तैजस और कामण दोनों शरीर उत्तरोत्तर अनन्तगुणित प्रदेशों वाले होते है । ये दोनों जीव के साथ अनादि काल से लगे हुए हैं । पपु०
१०५.१५२-१५३ काल-(१) भरत चक्रवर्ती की निधिपाल देवों द्वारा सुरक्षित और
अविनाशी नौ निधियों में प्रथम निधि । इससे लौकिक शब्दों-व्याकरण आदि शास्त्रों की तथा इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों वीणा, बांसुरी आदि संगीत की यथासमय उपलब्धि होती रहती थी। मपु० ३७.७३-७६, हपु० ११.११०-११४
(२) गन्धमादन पर्वत से उद्भूत महागन्धवती नदी के समीप
भल्लंकी नाम की पल्ली का एक भील। इसने बरधर्म मुनिराज के पास मद्य, मांस और मधु का त्याग किया था। इसके फलस्वरूप यह मरकर विजया पर्वत पर अलका नगरी के राजा पुरबल और उनकी रानी ज्योतिर्माला का हरिबल नाम का पुत्र हुआ था। मपु० ७१. ३०९-३११
(३) भरत खण्ड के दक्षिण का एक देश । लवणांकुश ने यहाँ के राजा को पराजित किया था। पपु० १०१.८४-८६
(४) विभीषण के साथ राम के आश्रय में आगत विभीषण का शूर सामन्त । यह राम का योद्धा हुआ और इसने रावण के योद्धा चन्द्रनख के साथ युद्ध किया था। पपु० ५५.४०-४१, ५८.१२-१७, ६२.३६
(५) व्यन्तर देवों के सोलह इन्द्रों में पन्द्रहवाँ इन्द्र। बीवच० १४.५९-६१
(६) पंचम नारद । यह पुरुष सिंह नारायण के समय में हुआ था। इसकी आयु दस लाख वर्ष की थी। अन्य नारदों के समान यह भी कलह का प्रेमी, धर्म-स्नेही, महाभव्य और जिनेन्द्र का भक्त था । हपु० ६०.५४८-५५०
(७) सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रक की पूर्व दिशा में स्थित महानरक । हपु० ४.१५८
(८) कालोदधि के दक्षिण भाग का रक्षक देव । हपु० ५.६३८
(९) दिति देवी द्वारा नमि और विनमि को प्रदत्त विद्याओं का एक निकाय । हपु० २२.५९-६०
(१०) छः द्रव्यों में एक द्रव्य । यह रूप, रस, गन्ध और स्पर्श तथा गुरुत्व और लघुत्व से रहित होता है। वर्तना इसका लक्षण है । अनादिनिधन, अत्यन्त सूक्ष्म और असंख्येय यह काल सभी द्रव्यों के परिणमन में कुम्हार के चक्र के घूमने में सहायक कील के समान सहकारी कारण होता है। मपु० ३.२-४, २४.१३९-१४०, हपु० ७.१, ५८.५६ इसके अणु परस्पर एक दूसरे से नहीं मिलते इसलिए यह अकाय है तथा शेष पाँचों द्रव्य-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश के प्रदेश एक दूसरे से मिले हुए रहते हैं इसलिए वे अस्तिकाय है। यह धर्म, अधर्म और आकाश की भाँति अमूर्तिक है । इसके दो भेद हैं-मुख्य (निश्चय) और व्यवहार । इनमें व्यवहारकाल-मुख्यकाल के आश्रय से उत्पन्न उसी की पर्याय है । यह भूत, भविष्यत् और वर्तमान रूप होकर यह संसार का व्यवहार चलाता है। समय, आवलि, उच्छ्वास, नाड़ी आदि इसके अनेक भेद हैं । मपु० ३.७-१२, २४.१३९-१४४ परमाणु जितने समय में अपने प्रदेश का उल्लंघन करता है, उतने समय का एक समय होता है। यह अविभागी होता है । इसके आधार से होनेवाला व्यवहार निम्न प्रकार हैअसंख्यात समय = एक आवलि संख्यात आवलि = एक उच्छ्वास-निःश्वास दो उच्छ्वास-निःश्वास = एक प्राण सात प्राण%एक स्तोक सात स्तोक-एक लव
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