Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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इलाकूट-उपरथ
जैन पुराणकोश : ५७
कूट। इसकी ऊँचाई पच्चीस योजन है । यह मूल में पच्चीस योजन, मध्य में पौने उन्नीस योजन और ऊपर साढ़े बाहर योजन विस्तृत है । मपु० ५९.११८, हपु० ५.५२-५६ ।
(२) रुचकवर गिरि के लोहिताश्व कूट की देवी । हपु० ५.७१२
(३) हरिवंशी राजा दक्ष की रानी। इसके ऐलेय नामक पुत्र और मनोहरी नाम की पुत्री हुई थी। राजा दक्ष अपनी इस पुत्री में आकृष्ट हुआ और उसने इसे स्वयं ग्रहण कर किया था। इस कृत्य से रुष्ट हो यह पुत्र को लेकर एक दुर्गम स्थान में चली गयी थी। वहाँ इसने इलावर्द्धन नाम से प्रसिद्ध नगर बसाया था तथा पुत्र ऐलेय
को उसका राजा बनाया था। पु० १७.१-१९ इलाकूट-हिमवत् कुलाचल का चौथा कूट । हपु० ५.५३ इलावर्द्धन-(१) राजा दक्ष की भार्या इला द्वारा बसाया गया नगर ।
ऐलेय यहाँ का राजा था । यहाँ वसुदेव भी आया था। हपु० ११, १८-१९, २४.३४ दे० इला-३
(२) राजा दक्ष का पुत्र, श्रीवर्द्धन का पिता । पपु० २१.४९ इष-काम्पिल्य नगर के निवासी शिखी ब्राह्मण की भार्या । राम, लक्ष्मण __आदि का गुरु ऐर इसका पुत्र था। पपु० २५.४२, ५८ इष्टवियोगज-आर्तध्यान का प्रथम भेद । आर्तध्यानी इष्ट वस्तु का वियोग होने पर उसके संयोग के लिए बार-बार चिन्तन करता है।
पु० २१.३१-३६ इष्वाकार-धातकीखण्ड और पुष्कराध द्वीप की उत्तर दक्षिण दिशा में
स्थित चार पर्वत । ये पर्वत इन दोनों द्वीपों को आधे-आधे भागों में विभाजित करते हैं । मपु० ५४.८६, हपु० ५.४९४, ५७७-५७९
देखकर गमन करते हुए वे इसका पालन करते हैं। पपु० १४.१०८,
हपु० २.१२२, पापु० ९.९१ ईश-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३१, ३४ ईशत्व-भरतेश को प्राप्त अष्ट सिद्धियों में एक सिद्धि । मपु० ३८.१९३
दे० अणिमा ईशान-भरतेश और सोधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२४.३०, २५.११२ ईशानेन्द्र-ईशान स्वर्ग का इन्द्र । यह जिनेन्द्र पर छत्र लगाये रहता है।
यह कलशोद्वार मंत्र का ज्ञाता तथा सौधर्मेन्द्र के साथ जिनाभिषेक का कर्ता होता है । वीवच० ८.१०३, ९.८-९ ईशावनी-आठवें चक्रवर्ती सुभूम को जन्मभूमि । पपु० २०.१७१ ईशित-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८२ ईश्वरसेन-सुनन्दिषेण आचार्य के पश्चात् हुआ आचार्य । हपु० ६६.२८ ईषत्प्राभार-ऊध्वंलोक की अन्तिम भूमि । यह पृथिवी ऊपर की ओर किये हुए धवल छत्र के आकार में है । पुनर्भव से रहित महासुख सम्पन्न, तथा स्वात्मशक्ति से युक्त सिद्ध परमेष्ठी यहाँ स्थित हैं।
पपु० १०५, १७३-१७४, हपु० ६.४० ईहा-पाँचों इन्द्रियों और मन की सहायता से होनेवाले मतिज्ञान में
सहायक ज्ञान । हपु० १०.१४६ ।। ईहापुर-एक नगर । यहाँ के नरभोजी भयंकर भङ्ग राक्षस का भीमसेन
ने वध किया था। हपु० ४५.९३-९४
ईति-देश या राष्ट्र को कष्ट पहुंचाने वाली छ: बातें-अतिवृष्टि, अना-
वृष्टि, मूषक, शलभ, शुक और बाह्य आक्रमण । मपु० ४.८०, १९.
८,हपु०१.१८ ईर्यादि पंचक-ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन ये
पाँच समितियाँ हैं । हपु० ६१.११९ ईर्यापथ-आस्रव का एक भेद । यह अकषाय जीवों के होता है।
उपशान्तकषाय से सयोग-केवली तक के जीव अकषाय होते हैं । हपु०
५८.५८-५९ ईर्यापक्रिया-ईर्यापथ में निमित्त भूत क्रिया । यह क्रिया साम्परायिक
आस्रव की निमित्त भूत पाँच क्रियाओं में एक है । हपु० ५८.६५ ईर्यापथदण्डक-दोनों पैर बराबर करके जिन प्रतिमा के सामने खड़े
होना और हाथ जोड़कर ईर्यासमिति से संबंधित पाठ का मन्द स्वर
से उच्चारण करना । हपु० २२.२४ ईर्याशुद्धि-मार्ग में चलते समय होने वाली शारीरिक अशुद्धता को दूर करना । मपु० ७.२७५ ईर्यासमिति समितियों में प्रथम समिति । इसमें नेत्र-गोचर जीवों के
समूह को बचाकर गमन किया जाता है। यह मुनियों का धर्म है। सूर्योदय होने पर जन्तुओं द्वारा मर्दित मार्ग में चार हाथ आगे भूमि
संडु-गौड के पास का ऋषभदेव के समय में इन्द्र द्वारा रचित एक - देश । मपु० १६.१५२, २९.४१ उक्ता-छन्दों की एक जाति । मपु०१६.११३ उक्तिकौशल-भाषण कला । यह स्थान, स्वर, संस्कार, विन्यास, काकु,
समुदाय, विराम, सामान्याभिहित (पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग), समानार्थत्व (एक शब्द के द्वारा अनेक अर्थों का प्रतिपादन) और
भाषा इन सबसे युक्त होती है । पपु० २४.२७-३५ ।। उक्षध्वज-वृषभाकृतियों से चिह्नित समवसरण की ध्वजाएँ। मपु०
२२.२३३ उग्र-(१) उग्र तपश्चरण में सहायक ऋद्धि विशेष । मपु० ११.८२
(२) इन्द्र विद्याधर का एक योद्धा । पपु० १२.२१७ (३) रावण का एक योद्धा। पपु० ६०.२-४ (४) उग्र शासन करनेवाला राजा । हपु० ९.४४
(५) वृषभदेव के समय में इन्द्र द्वारा रचित एक देश । मपु० १६. १५२ उग्रनक-दैत्यराज मय का मन्त्री । पपु० ८.४३-४४ उपनाव-रावण का सामन्त । सिंहरथ पर आरूत होकर यह राम की
सेना से युद्ध करने के लिए लंका से निकला था। पपु० ५७.४७-४८ उपरथ-धृतराष्ट्र तथा गान्धारी के सौ पुत्रों में सतत्तरवां पुत्र । पापु०
८.२०२
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