Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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६२ : जैन पुराणकोश
उपषा-उपसमुद्र
उपमाभूत-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
१८७
उपधा-धर्म, अर्थ, काम और भय के समय किसी प्रकार से दूसरे के
चित्त की परीक्षा करना । मपु० ४४.२२ उपधान-पारिव्राज्य के सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद । इस सूत्रपद में
बताया गया है कि मुनि का उपधान उसकी भुजाएं होती हैं। मपु० ३९.१६२-१६६, १७९-१८० उपधि-बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह । मपु० ३४.१८९ उपनन्दक-राजा धृतराष्ट्र तथा उसकी रानी गान्धारी का पुत्र । पापु०
८.१९६ उपनयन-यज्ञोपवीत संस्कार । मपु० १५.१६४ उपनीतिक्रिया-(१) गृहस्थ की तिरेपन गर्भान्वय क्रियाओं में चौदहवीं क्रिया। शिश की यह क्रिया गर्भ से आठवें वर्ष में की जाती है । इसके अन्तर्गत शिशु के केशों का मुण्डन, व्रतबन्धन, तथा मौजीबन्धन किया जाता है । ये क्रियाएं अर्हत्-पूजा के पश्चात् जिनालय में बालक को व्रत देकर गुरु की साक्षी में की जाती है। भिक्षा में प्राप्त अन्न का अग्रभाग देव को समर्पित कर बालक शेष अन्न को भोजन में ग्रहण करता है । इसके क्रियान्वयन में मंत्र पढ़े जाते है-परमनिस्तारकलिंगभागी भव, परमर्षिलिंगभागी भव, परमेन्द्रलिंगभागी भव, परमराज्यलिंगभागी भव । मपु० ३८.५५-६३, १०४-१०८, ४०.१५३-१५५
(२) दीक्षान्वय से संबंधित नौवीं किया। इसमें देवता और गुरु की साक्षी में विधि के अनुसार अपने वेष, सदाचार और समय की रक्षा की जाती है । मपु० ३९.५४ उपपाण्डक-सुमेरु पर्वत का एक वन । हपु० ५.३०९ उपपाव-देव और नारकियों का जन्म । पपु० १०५.१५० उपपादशय्या-देवों की उत्पादशय्या । देव इस पर जन्म लेकर अन्तर्मुहूर्त में नवयौवन से पूर्ण तथा अपने सम्पूर्ण लक्षणों से सम्पन्न हो जाते है । उपपाद शिला भी यही है । मपु० ५.२५४-२५६, पपु० ६४.७०,
वीवच०४.६० उपपावशिला-दे० उपपादशय्या। उपबृंहण-सम्यग्दर्शन का एक अंग । इसके द्वारा क्षमा आदि भावनाओं
से आत्मधर्म की वृद्धि की जाती है। मपु० ६३.३१८ उपभोग-गन्ध, माला, अन्न-पान आदि बार-बार भोगी जाने वाली
वस्तुएँ। हपु० ५८.१५५ उपभोगाविनिरर्थन-अनर्थदण्डव्रत का एक अतिचार (उपभोग-परिभोग
की वस्तुओं का निरर्थक संग्रह करना) । हपु० ५८.१७९ उपभोगपरिभोग-परिमाणव्रत-उपभोग (बार-बार भोगने में आने
वाली) तथा परिभोग (एक बार भोगी जानेवाली) वस्तुओं का परिमाण करना। सचित्ताहार, सचित्त सबंधाहार, सचित्त सन्मिश्राहार, अभिषाहार और दुष्पक्वाहार ये इसके पाँच अतिचार है । हपु०
५८.१५५-१५६,१८२ उपमन्य-भरतक्षेत्र की गान्धारी नगरी के राजा भूति का मांसभोजी
अधर्मकर्मी पुरोहित । अन्त में सदुपदेश से यह पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान करते हुए मरण कर भूति का अरिसूदन नाम का पौत्र हुआ। पपु० ३१.४१, ४५-४६
उपयोग-जीव का स्वरूप । ज्ञान और दर्शन के भेद से यह दो प्रकार का
है । जीव के सिवाय अन्य द्रव्यों में अनुपलब्ध जीव के इस गुण का घातियाकर्म घात करते हैं। इसकी विशुद्धि के लिए आत्म तत्त्व का चिन्तन किया जाता है, जिससे बन्ध के कारण नष्ट हो जाते हैं ।
मपु० २१.१८-२९, २४.१००, ५४.२२७-२२८, पपु० १०५, १४७ उपयोगा-पद्मिनी नगरी के राजा विजयपर्वत के दूत अमृतस्वर की
भार्या । यह उदित और मुदित की जननी थी । पपु० ३९.८४-८६ उपयोगिता-दीक्षान्वय की आठवीं क्रिया । इसमें पर्व के दिन उपवास के उपयोगितामा
अन्त में प्रतिमायोग धारण किया जाता है । मपु० ३८.६४, ३९.५२ उपरम्भा-आकाशध्वज और मृदुकान्ता की पुत्री तथा नलकूबर की भार्या । यह गुण और आकार में रम्भा अप्सरा के समान थो । यह दशानन में आसक्त थी। दशानन के द्वारा समझाये जाने पर यह नलकूबर को पूर्ववत् चाहने लगी। पपु० १२.९७.९८, १०७-१०८, १४६-१५३ उपवना-तापस वंश में उत्पन्न एक दुःखी कन्या । मुहूर्तमात्र के आहारत्याग से इसने उत्कृष्ट धन सम्पदा प्राप्त की थी। पपु० १४.२४८
२५० उपवास-एक बाह्य तप-अनशन । विधियुक्त उपवास कर्मनाशक होता
है। इससे सिद्धत्व प्राप्त होता है। वृषभदेव ने एक वर्ष पर्यन्त यह तप किया था। मपु० ६.१४२, १४५, ७.१६, २०.२८-२९, पपु०
१४.११४-११५ उपशमक-चारित्रमोहनीय कर्म का उपशमन कर्ता जीव । ऐसे जीव अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय और उपशान्त मोह इन
चार गुणस्थानों में होते हैं । हपु० ३.८२ । उपशम भाव-अपनी भूल स्वीकार करके क्षमा माँग लेने पर उत्पन्न
होनेवाला भाव । मपु० ६.१४० उपशम श्रेणी-विशुद्ध परिणामों से सम्यक् विशुद्धि की ओर बढ़ना ।
चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम करनेवाले आठवें से ग्यारहवें गुणस्थानवी जीवों के परिणाम । मपु० ११.८९ उपशान्तकषाय-ग्यारहवाँ गुणस्थान । यहाँ मोहनीय कर्म सम्पूर्णतः
उपशान्त हो जाता है। मोहनीय कर्म का उपशम हो जाने से अतिशय विशुद्ध औपशमिक चारित्र प्राप्त होता है किन्तु जीव यहाँ अन्तर्महतं मात्र ही ठहर कर च्युत हो जाता है और पुनः क्रमशः उसो स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थान में आ पहुँचता है जहाँ से वह इस गुण
स्थान में आता है । मपु० ११.९०-९२, हपु० ३.८२ उपशीर्षक-एक हार । इसमें बीच में क्रम-क्रम से बढ़ते हुए तीन स्थूल
मोती होते हैं । मपु० १६.४७, ५२ उपसंख्यान-उत्तरीय वस्त्र-ओढ़ने का दुपट्टा । मपु० १३.७० उपसमुद्र-समुद्र से उछलकर द्वीप में आया अलंघनीय एवं गहरा जल । इससे द्वीप के चारों ओर का समीपवर्ती भाग आवृत हो जाता है । मपु० २८.४८
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