Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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७० : जैन पुराणकोश
कण्ठमालिका-कनकब
कण्ठमालिका-ले का आभूषण । यह स्वर्ण और रत्नों से बनती थी। (६) कनकाभ नगर का राजा। कनकधी इसकी रानी तथा इसे स्त्री और पुरुष दोनों पहनते थे। मपु० ६.८
कनकावली इसकी पुत्री थी । पपु० ६.५६७ कण्ठाभरण-गले का आभूषण । इसे पुरुष ही पहनते थे। भरतेश के (७) एक राजा। इसकी रानी का नाम संध्या, तथा पुत्री का आभूषणों में इसको बताया गया है । मपु० १५.१९३
नाम विद्युत्प्रभा था। दशानन इसका जामाता था। पपु० ८.१०५ कथक-कथावाचक । यह राग आदि दोषों से रहित होकर अपने दिव्य
(८) एक शस्त्र । इससे रथ तोड़े जा सकते थे । पपु० १२.२११, वचनों के द्वारा हेय और उपादेय की निर्णायक त्रेसठ शलाका पुरुषों
२३४ की कथाएँ कहकर निरपेक्ष भाव से भव्य जीवों का उपकार करता
(९) मृत्तिकावती नगरी का निवासी वणिक् । यह बन्धुदत्त का है। यह सदाचारी, प्रतिभासम्पन्न, विषयज्ञ, अध्ययनशील, सहिष्णु
पिता था । पपु० ४८.४३ और अभिप्राय विज्ञ होता है । मपु० १.१२६-१३४, ७४.११-१२
(१०) रावण का व्याघ्ररथी योद्धा । पपु० ५७.४९-५२
(११) राजा जनक का अनुज । म्लेच्छराज के साथ हुए युद्ध कथा-मोक्ष पुरुषार्थ में उपयोगी होने से त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, और काम
में यह लड़ा था। यह सम्यग्दृष्टि था । मरकर यह आनत स्वर्ग में देव का कथन करनेवाली साहित्यिक विधा। इसके दो भेद होते हैं
हुआ था । पपु० २७.५०-५१, १२३.८०-८१ सत्कथा और विकथा । कथा चार प्रकार की होती है-आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदिनी और निर्वेदिनी। इनमें स्वमत की स्थापना करते
कनककूट-(१) मानुषोत्तर पर्वत को पश्चिम दिशा का एक कूट । हपु०
५.६०४ समय आक्षेपिणी, मिथ्यामत का खण्डन करते समय विक्षेपिणी, पुण्य-फल, विभूति आदि का वर्णन करते समय संवेदिनी और वैराग्य
(२) रुचक गिरि का एक कूट । हपु० ५.७०५
कनककेशी-भूतरमण अटवी में ऐरावती नदा के तट पर रहनेवाले उत्पादन के समय निर्वेदिनी कथा कथनीय होती है। मपु० १.११८
खमाली तापस को स्त्री। यह विभीषण के जीव भृगशृंग की माता १२१, १३५-१३६, पापु० १.६२-७० कथागोष्ठी-कथा का आयोजन । इसके द्वारा श्रोताओं को मनोरंजन के
थी । हपु० २७.११९ साथ सम्यकचारित्र की ओर आकृष्ट किया जाता था। मंपु० ___ कनकचित्रा-(१) रुचकगिरि के नित्यालोक कूट में रहनेवाली एक देवी।
१२.१८७ कथापुरुष-सठ शलाका पुरुष-चौबीस तीर्थंकर, नौ बलभद्र, नौ
(२) पूर्व विदेहक्षेत्र के रत्नसंचय नगर के राजा क्षेमंकर की रानी नारायण, नौ प्रतिनारायण और बारह चक्रवर्ती । मपु० २.१२५
और वज्रायुध की जननी । मपु० ६३.३७-३९ कथाभोता-कथा सुनने वाला। कथा श्रोता के गुण-ग्रहण, धारणा,
(३) अश्वग्रीव की भार्या । मपु० ६२.६० स्मृति, ऊह, अपोह, निर्णीति और शुश्रूषा । श्रोता चौदह प्रकार के कनकचूल-देवमरण वन का निवासी एक व्यन्तर । मपु० ६३.१८६ होते हैं । मपु० १.१३८-१४८
कनकतेजस-हेमांगद देश से स्थित राजपुर नगर का निवासी वैश्य ।
मपु० ७५.४५०-४५३ कवम्ब-(१) रावण का गजरथी योद्धा । पपु० ५७.५७-५८
कनकधुति-हेमपुर नगर का राजा, विद्युत्प्रभ का पिता । पपु० १५.८५ (२) तीर्थकर वासुपूज्य का चैत्यवृक्ष (कैवल्यधाम)। मपु० ५८.४२
कनकध्वज-(१) भविष्यत् कालीन चतुर्थ कुलकर। मपु० ७६.४६४, कदम्बमुखी-एक वापी। प्रद्युम्न को इसी वापी से नागपाश की प्राप्ति हपु० ६०.५५५ हुई थी। मपु० ७२.१२१
(२) एक विद्वान् परलोभी नृप । दुर्योधन द्वारा घोषित आधे राज्य कवम्बुक-लवणसमुद्र की पश्चिम दिशा में स्थित पाताल-विवर । हपु० के लोभ से इसने पाण्डवों को सात दिन में मारने का निश्चय किया ५.४४२-४४३
था तथा कृत्या नामक विद्या सिद्ध करके इसने उन्हें मारने का प्रयल मवलीघात-प्रायः युद्ध में होनेवाला मनुष्यों का अकाल मरण । मपु० भी किया किन्तु उसी विद्या से यह स्वयं मारा गया। पापु० १७. ७१.१०९
१५०-१५२, २०९-२१९ कनक-(१) स्वर्ण अर्थ में व्यवहृत शब्द । मपु० ३. ३६
कनकपाद -भविष्यत् कालीन इक्कीसवें तीर्थंकर का जीव। मपु० ७६. (२) भविष्यत् कालीन प्रथम कुलकर । मपु० ७६.४८३, हपु. ४७४ ६०.५५५
कनकपुंख-(१) शिवमन्दिर नगर का राजा । इसकी रानी का नाम (३) धृतराष्ट्र तथा उसकी रानी गान्धारी का पुत्र । पापु० जयदेवी और उससे उत्पन्न पुत्र का नाम कीर्तिधर था। मपु० ६२. ८.२०५
४८८-४९० (४) धृतवर समुद्र का रक्षक देव । हपु० ५.६४२
(२) मंगलावती देश में स्थित कनकप्रभ नगर का विद्याधर राजा । (५) कुण्डलगिरि की पूर्व दिशा का एक कूट। यह महाशिरस् कनकमाला इसकी पत्नी और कनकोज्ज्वल इसका पुत्र था। मपु० नामक देव की निवासभूमि था । हपु० ५.६९०
७४.२२२, वीवच० ४.७२-७६
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