Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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६४ बैन पुराणकोश
अनिरुद्ध के साथ इसका विवाह कराया था। हपु० ५५.१६-१७, २४ (२) द्वारावती नगरी के राजा ब्रह्म की दूसरी रानी । मपु०
५८.८४
उष्ट - सैनिकों का सामान ढोनेवाला पालतू पशु । मपु० २९.१५३, १६१
उष्ण - (१) मेघ । अवसर्पिणी काल के अन्त में सरस, विरस, तीक्ष्ण और रूक्ष नामक मेघों के क्रमशः सात-सात दिन बरसने के उपरान्त सात दिन तक उष्ण नाम के मेघ वर्षा करते हैं । ४५३
मपु० ७६.४५२
(२) इस नाम का एक परीषह । इसमें मार्ग से लिए उष्णता जनित कष्ट को सहन किया जाता है । उष्णदा - अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज को प्राप्त एक विद्या
च्युत न होने के मपु० ३६.११६ मपु० ६२.
३९८
उष्णीष - श्वेतवर्ण की सिर पर धारण की जानेवाली पगड़ी या साफ़ा । मपु० १०.१७८
ऊ
ऊर्जयन्त सौराष्ट्र देश का एक पर्वत (गिरमार ) यहाँ तीर्थंकर नेमिनाथ के लिए समवसरण की रचना की गयी थी। यहीं उनका निर्वाण हुआ था । इसी पर्वत पर इन्द्र ने लोक में पवित्र सिद्ध शिला का निर्माण करके उस पर जिनेन्द्र भगवान् के लक्षण वृत्र से उत्कीर्ण किये थे । मपु० ३०.१०२, ७१.२७५, ७२.२७२-२७४, पपु० २०. ३६, ५८, ० १.११५, २३.१५५ ५९.१२५, १५.१४ पापु० २२.७८
ऊर्णनाभ - राजा धृतराष्ट्र तथा गान्धारी का उन्तीसवाँ पुत्र | पापु०
८. १९६
ऊर्ध्वलोक-लोक के तीन भेदों में एक भेद । यह मृदंग के आकार का है। वैमानिक देव यहीं रहते हैं । यह मध्य लोक के ऊपर स्थित है । यहाँ कल्प तथा कल्पातीत विमानों के त्रेसठ पटल हैं और चौरासी लाख सत्तान्नवें हज़ार तेईस विमान हैं । यहाँ वे जीव जन्मते हैं जो रत्नत्रय धर्म के धारक अहंन्त और निर्ग्रन्थ गुरुओं के भक्त और जितेन्द्रिय तथा सदाचारी होते हैं । पपु० १०५.१६६, हपु० ४.६, वीवच० ११.१०४ १०८ चित्रा पृथिवी से डेढ़ रज्जु की ऊँचाई पर जहाँ दूसरा ऐशान स्वर्ग समाप्त होता है वहाँ इस लोक का विस्तार दो रज्जु पूर्ण और एक रज्जु के सात भागों में से पाँच भाग प्रमाण हैं। उसके ऊपर डेढ़ रज्जु और आगे जहाँ माहेन्द्र स्वर्गं समाप्त होता है वहाँ इस लोक का विस्तार चार रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से तीन भाग प्रमाण है । इसके आगे आधी रज्जु और चलने पर ब्रह्मोत्तर स्वर्गं समाप्त होता है । वहाँ इस लोक का विस्तार पाँच रज्जु है । उसके ऊपर आधी रज्जु और चलने पर कापिष्ठ स्वर्ग समाप्त होता है । वहाँ इस लोक का विस्तार चार रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से तीन भाग प्रमाण है । उसके आगे आधी रज्जु और चलने पर महाशुक्र स्वर्ग समाप्त होता है । वहाँ इस लोक
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उष्ट्र-म
का विस्तार तीन रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से छः भाग प्रमाण है। इसके ऊपर आधी रज्जु और चलने पर सहस्रार स्वर्ग का अन्त आता है । वहाँ इस लोक का विस्तार तीन रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से पाँच भाग प्रमाण है। इसके ऊपर आधी रज्जु और आगे अच्युत स्वर्ग समाप्त होता है । वहाँ इस लोक का विस्तार दो रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से एक भाग प्रमाण है । इसके आगे जहाँ इस लोक का अन्त होता है वहाँ इसका विस्तार एक रज्जु प्रमाण है । हपु० ४.२१-२८
ऊर्ध्वव्यतिक्रम - दिव्रत का तीसरा अतिचार - लोभवश ऊपर की सीमा
का उल्लंघन करना । हपु० ५८.१७७
ऊर्मिमान् - अन्धकवृष्णि के पुत्र स्तिमितसागर का ज्येष्ठ पुत्र । यह वसुमान्, वीर और पातालस्थिर का अग्रज था । हपु० ४८.४६ ऊर्मिमालिनी विदेह क्षेत्र में स्थित मन्दिल देश की पश्चिम दिशा में प्रवाहित विभंगा नदी । यह नोलाचल पर्वत से निकलकर सीतोदा नदी में मिली है । हपु० ४.५२, ६३.२०७, ५.२४१-२४२ ऊह – (१) चौरासी लाख कहांग प्रमाण काल । हपु० ७.२९ (२) तर्क के द्वारा पदार्थ के स्वरूप को जानना । यह श्रोता के आठ गुणों में एक गुण है । मपु० १.१४६ ऊहा - भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी । भरत की सेना ने इस नदी को पार किया था । मपु० २९.६२
कहांग --- चौरासी लाख अमम प्रमाण काल । हपु ७.२९
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ऋक्षरज - वानरवंशी राजा । अपने नगर अलंकारपुर से निकलकर इसने अपनी वंश-परम्परा से चले आये नगर को लेने के लिए यम दिक्पाल से युद्ध किया था, जिसमें यह पकड़ा गया था । अन्त में दशानन की सहायता से यम के बन्धन से मुक्त होकर तथा यम को जीतकर इसने किष्कुपुर का वंश क्रमागत शासन प्राप्त किया था। इसकी रानो हरिकान्ता से इसके नल और नील दो पुत्र हुए थे । पपु० ७.७७, १८.४४०-४५१, ४९८, ९.१३, ऋक्षवत् — एक पर्वत । भरत की सेना ने इसे पार किया था। मपु० २९.६९
मध्य में बहती हुई
ताम्भिक ग्राम के बाहर मनोहर बन के नदी । इसके तट पर शालवृक्ष के नीचे तीर्थंकर महावीर ने प्रतिमा-योग धारण किया था । केवलज्ञान भी उन्हें यहीं हुआ था । मपु० ७४.३४८-३५४, पु० २.५७, १३.१००-१०१, ६०.२५५, पापु० १. ९४ ९७
ऋजुमति – (१) चारण ऋद्धिधारी एक मुनि । इन्होंने प्रीतिकर सेठ को गृहस्थ और मुनिधर्म का स्वरूप समझाया था । मपु० ७६. ३५०-३५४
(२) मन:पर्ययज्ञान का पहला भेद । यह अवधिज्ञान को अपेक्षा अधिक सूक्ष्म पदार्थ को जानता है। अवधिज्ञान यदि परमाणु को जानता है तो यह उसके अनन्तवें भाग को जान लेता है । गौतम
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