Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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उत्कृष्टोपासकस्थान-उत्पलगुल्मा
जैन पुराणकोश : ५९
उत्कृष्टोपासकस्थान-ग्यारहवों उद्दिष्ट त्याग प्रतिभा का धारक लोग बदरीफल के बराबर तीन दिन बाद आहार करते हैं । यहाँ क्षुल्लक । मपु० १०.१५८
जरा, रोग, शोक, चिंता, दीनता, नींद, आलस्य, मल, लार, पसीना, उत्तंस-किरीट से भी उत्तम कोटि का रत्नजटित मुकुट । मपु० १४.७ उन्माद, कामज्वर, भोग, विच्छेद, विषाद, भय, ग्लानि, अरुचि, उत्तम-(१) रावण का सामन्त । यह राम-रावण युद्ध में राम के विरुद्ध क्रोध, कृपणता और अनाचार नहीं होता। मृत्यु असमय में नहीं लड़ा था। पपु० ५७.४५-४८
होती। सभी समान भोगोपभोगी होते हैं। सभी दीर्घायु. वज्रवृषभ(२) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । नाराच-संहनन युक्त, कान्तिधारक और स्वभाव से मृदुभाषी होते हैं । मपु० २४.४३, २५.१७१
यहाँ मनुष्य बालसूर्य के समान देदीप्यमान, पसीना रहित और स्वच्छ उत्तम क्षमा-क्रोध पर विजय प्राप्त करना । धर्म के दस लक्षणों में यह वस्त्रधारी होते हैं । अपात्रों को दान देने वाले मिथ्यादृष्टि, भोगाप्रथम लक्षण है । मपु० ३६.१५७
भिलाषी जीव हरिण आदि पशु होते है। इनमें परस्पर वैर नहीं उत्तमक्षेत्र-तीनों लोकों के ऊपर स्थित कर्मबन्धन-मुक्त जीवों की होता, ये भी सानन्द रहते हैं। मपु० ३.२४-४०, ९.३५-३६, ५२निवासभूमि-सिद्धक्षेत्र । पपु० १०५ १७२ ।।
८९, हपु० ५.१६७ उत्तमजन-आत्महित का लक्ष्य कर शुभकार्य में प्रवृत्त लोग । पपु० उत्तरकुरु कूट--(१) गन्धमादन पर्वत पर स्थित सात कूटों में एक कूट । १७.१७९
हपु० ५.२१७ उत्तमपात्र-श्रमण । ये हिंसा से विरत, परिग्रह-रहित, राग-द्वेष से हीन, (२) माल्यवान् पर्वत पर स्थित नौ कूटों में एक कूट। हपु० ५. तपश्चरण में लीन, सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र से युक्त, तत्त्वों के
२१९ चिन्तन में तत्पर और सुख-दुख में निर्विकारी होते हैं । पपु० १४. उत्तरकोशल-कोशल जनपद का एक भाग । मपु० १६.१५४, २९.४७ ५३-५८,हपु० ७.१०८
उत्तरगुण-मुनियों के चौरासी लाख गुण । मपु० ३६.१३५ उत्तमवर्ण-भरतक्षेत्र में विन्ध्याचल पर स्थित एक देश । हप० ११.७४
उत्तरमन्द्रा-षड्ज ग्राम की एक मूर्च्छना । हपु० १९.१६१ उत्तर-शतार स्वर्ग का एक देव । पपु० ५.११० ।
उत्तरश्रेणी -विजयार्घ पर्वत का एक भू-भाग । इस पर विद्याधरों की उत्तरकुमार-राजा विराट का पुत्र । अर्जुन ने इसे सारथी बनाकर
__साठ नगरियाँ हैं । हपु० ५.२३, २२.८५-९२ कोरवों से युद्ध किया था। इसका दूसरा नाम बृहन्नट था। हपु० उत्तराध्ययन-अंग बाह्यश्रुत के चोदह भेदों में आठवाँ अंगबाह्य श्रुत । १८.४२-६१ अन्त में यह कृष्ण-जरासन्ध युद्ध में राजा शल्य द्वारा इसमें भगवान महावीर के निर्वाण का वर्णन है । हपु० २.१०३, १०. मारा गया था । पापु० १९१८३-१८४
१३४ उत्तरकुरु-(१) भगवान् नेमिनाथ के निष्क्रमण महोत्सव के लिए कुबेर उत्तरापथ-भरतखण्ड का उत्तरदिशावर्ती भू-भाग । तीर्थंकर नेमिनाथ के द्वारा निर्मित शिविका । मपु० ६९.५३-५४, हपु० ५५.१०८
विहार करते हुए यहाँ से सुराष्ट्र की ओर गये थे । 'पु० ६१.४३, (२) नील कुल पर्वत से साढ़े पांच सौ योजन दूरो पर नदी के मध्य में स्थित एक ह्रद । यहाँ नागकुमार देव रहते हैं। मपु० उत्तराफाल्गुनी-एक नक्षत्र। भगवान् महावीर इसी नक्षत्र में गर्भ में ६३.१९९,हपु० ५.१९४
आये, जन्मे, वैरागी और केवली हुए थे। अपर नाम उत्तराफाल्गुन । (३) नील कुलाचल और सुमेरु पर्वत के मध्य में स्थित प्रदेश । यहाँ भोगभूमि की रचना है । यह जम्बूद्वीप सम्बन्धी महामेरु पर्वत से
पपु० २०.३६-६०, हपु० २.२३, २५, ५०, ५९
उत्तराभाद्रपद-एक नक्षत्र । तीर्थंकर विमलनाथ ने इसी नक्षत्र में जन्म उत्तर की ओर स्थित है। यहाँ मद्यांग आदि दशों प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं । पृथिवी चार अंगुल प्रमाण घास से युक्त होती है।
लिया था। पपु० २०.४९ पशु इस कोमल तृण-सम्पदा को रसायन समझकर चरते हैं। यहाँ
उत्तरायता-षड्ज स्वर की एक मूर्च्छना । हपु० १९.१६१
उत्तरार्ध-विजयाधं पर्वत के नौ कूटों में आठवाँ कूट । हपु० ५.२७ सुन्दर वापिकाएं, तालाब और क्रीडा-पर्वत है। मन्द-सुगन्धित वायु बहती है। कोई ईतियाँ नहीं है। रात-दिन का विभाग नहीं है ।
उत्तरार्धकूट-ऐरावत क्षेत्र के मध्य स्थित विजयाध पर्वत का द्वितीय कूट ।
हपु० ५.११० आर्य युगल प्रथम सात दिन केवल अंगुष्ठ चूसते है, द्वितीय सप्ताह में
उत्तराषाढ़-एक नक्षत्र । वृषभदेव का जन्म और उनकी दीक्षा इसी नक्षत्र दम्पत्ति घुटने के बल चलता है, तीसरे सप्ताह मीठी बातें करते हैं,
___में हुई थी । मपु० १७.२०३, पपु० २०.३६-३७ पांचवें सप्ताह में गणों से सम्पन्न होते हैं, छठे सप्ताह में युवक हात है उत्तरीय-परुष द्वारा व्यवहृत ओढ़ने का परिधान । पपु० ३.१९८ और सातवें सप्ताह में भोगी हो जाते हैं। यहाँ पूर्वभव के दानी ही
उत्पलखेटक-पुष्कलावती जनपद का नगर । वज्रबाहु यहाँ का राजा उत्पन्न होते हैं । गर्भवासी यहाँ गर्भ में रत्नमहल के समान रहता था। मपु० ६.२६-२७ है । स्त्री-पुरुष दोनों साथ-साथ जन्मते, पति-पत्नी बनते और एक उत्पलगुल्मा-मेरु पर्वत की पूर्व-दक्षिण (आग्नेय) दिशा में स्थित वापी । युगल को जन्म देकर मरण को प्राप्त होते हैं । माता छोंककर और यह लम्बाई में पचास योजन, गहराई में दस योजन और चौड़ाई में पिता जंभाई लेकर मरते हैं । यहाँ आयु तीन पल्य की होती है । ये पच्चीस योजन है । हपु० ५.३३४-३३५
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