Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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बाहारक-इन्चुगति
जैन पुराणकोश : ५३
तरह छियालीस दोष रहते हैं । मपु० २०.२-४, ९, ३४.२०५-२०७, पपु० ४.९७, हपु० ९.१८७-१८८ आहारक-आहारक ऋद्धि से उत्पन्न तेजस्वी शरीर । मपु०११.१५८,
पपु० १०५.१५३ आहारवान-हिंसा आदि दोषों तथा आरम्भों से दूर रहनेवाले मुनियों
आदि पात्रों को उनकी शरीर की स्थिति के लिए विधिपूर्वक आहार देना। इसका शुभारम्भ राजा श्रेयांस ने किया था। यह दान देने और लेनेवाले दोनों को ही परम्परया कर्म-निर्जरा एवं साक्षात् पुण्यास्रव का कारण है । मपु० २०.९९, १२३, ५६.७१-७३, ४३३,
पपु० ३२.१५४ आहारविधि-आहार देने की विधि । इस विधि में आहार के लिए
आये साधु को हाथ जोड़कर पड़गाहना, आने पर पूजा कर उन्हें अर्घ चढ़ाना, नमोऽस्तु कहकर घर के भीतर ले जाना और उच्चासन पर बिठाकर पादप्रक्षालन करना, पूजा करना, यह सब करने के पश्चात् पुनः नमस्कार कर मन, वचन, काय से शुद्धि बोलकर श्रद्धा आदि गुण सम्पत्ति के साथ आहार दिया जाता है। जो भिक्षा मुनियों के उद्देश्य से तैयार की जाती है वह उनके योग्य नहीं होती । अनेक उपवास हो जाने पर भी साधु श्रावक के घर ही आहार के लिए जाते है और वहाँ प्राप्त हुई निर्दोष भिक्षा को मौन से खड़े रहकर ग्रहण करते है । दान-दाता में श्रद्धा, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और स्याग ये सात गुण आवश्यक होते हैं । मपु० ८.१७०-१७३, २०.८२, पपु० ४.९५-९७ आहारशुद्धि-निरामिष भोजन । मपु० ३९.२९ आहल्या-अरिंजयपुर नगर के राजा वह्निवेग विद्याधर और उसकी
रानी वेगवती की पुत्री। स्वयंवर में चन्द्रावर्तपुर के स्वामी आनन्दमाल से इसका विवाह हुआ था। पपु० १३.७३-७७ आहिताग्नि-गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि इन तीन अग्नियों में
मंत्रों के साथ नित्य पूजा करनेवाले अग्निहोत्री। मपु० ४०.८५ आहुतिमंत्र-संध्याओं के समय तीनों अग्नियों में देवपूजन रूप नित्य कर्म करते समय विधिपूर्वक सिद्ध किये हुए पीठिका मंत्र। मपु० ४०.७९ दे० आहिताग्नि
(२) मध्यलोक के सातवें द्वीप को घेरे हुए सागर । हपु० ५.६१५ इक्ष्वाकु-(१) वृषभदेव द्वारा राज्यों की स्थिति के लिए स्थापित चार
प्रमुख वंशों में प्रथम वंश । वृषभ इस वंश के महापुरुष थे । स्वर्ग से च्युत देव इसी वंश में उत्पन्न होते थे। आगे चलकर आदित्यवंश और सोमवंश इसी की दो शाखाएँ हुई। मपु० १.६, १२.५, पपु० ५.१-२, हपु० २.४, १३, ३३, पापु० २.१६३-१६४
(२) इक्षुरस-पान का उपदेश करने से वृषभदेव इस नाम से संबोधित किये गये थे। मपु० १६.२६४ हपु० ८.२१०,
(३) इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न पुरुष । पपु० ६.२१०, हपु० २.४ इक्ष्वाकुकुलनन्दन-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.७५ इच्छापरिमाण-पाँचवां अणुव्रत । इसमें स्वर्ण, दास, गृह, खेत आदि का
संकल्पपूर्वक परिमाण कर लिया जाता है । हपु० ५८.१४२ इज्य-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४२ इज्या-(१) अर्हत्-पूजा। यह पूजा नित्य पूजा, कल्पद्रुम पूजा, चतुर्मुख पूजा और आष्टाह्निक पूजा के भेद से चार प्रकार की होती है। याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, अध्वर, मख और मह इसके पर्यायवाची शब्द हैं । मपु० ३८.२६, ६७.१९३
(२) भरतेश ने उपासकाध्ययनांग से जिन छः वृत्तियों (इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप) का उपदेश दिया था उनमें
यह प्रथम वृत्ति है। मपु० ३८.२४-३४ इज्याह-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७४ इतरनिगोव-साधारण वनस्पति जीवों का एक भेद । इसमें जीव की __ सात लाख कुयोनियां होती हैं । हपु० १८.५६,५७ इतिसंवृद्धि-विद्याधर भानुकर्ण को प्राप्त एक विद्या । पपु० ७.३३३ इतिहास-(१) महापुराण का अपरनाम । इतिहास का अर्थ है-"इति
इह आसीत्" (यहाँ ऐसा हुआ) इसके दूसरे नाम है- इतिवृत्ति और ऐतिह्य । यह ऋषियों द्वारा कथित होता है । इसमें पूर्व घटनाओं का उल्लेख किया जाता है । मपु० १.२५, हपु० ९.१२८
(२) पूर्व घटनाओं की स्मृति । हपु० ९.१९८ इत्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३४ इन-(१) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३४, २५.१८२
(२) सूर्य । मपु० ६२.३८९, हपु० २.९
(३) स्वामी । हपु० ३५.१५ इन्दीवरा-त्रिश्रृग नगर के राजा प्रचण्डवाहन और रानी विमलप्रभा ___ की दस पुत्रियों में सातवीं पुत्री । हपु० ४५.९५-९८ इन्दु-(१) इस नाम का एक विद्याधर, ज्वलनजटी का दूत । इसे त्रिपिष्ट के पिता प्रजापति के पास भेजा गया था । मपु०६२.९७
(२) चन्द्रमा । हपु० २.२५ । इन्दुगति-एक विद्याधर राजा। आकाश से गिरते हुए एक शिशु को
प्राप्त करके रत्नमयी कुण्डलों से विभूषित होने के कारण इसने उसका नाम भामण्डल रखा था। उसकी रानी पुष्पवती ने पुत्र रूप में उसका पालन किया। पपु० २६.१३०, १४९
इनुमती-इस नाम की एक नदी। भरतेश दिग्विजय के समय यहाँ
ससैन्य आये थे। मपु० २९.८३ इलयंत्र-गन्ने का रस निकालने का यंत्र । मपु० १०.४४ इच्क्षुरस-ईख का रस । तीर्थकर वृषभदेव के समय में यह रस छहों
रसों के स्वाद से युक्त होकर स्वयं सवित होता था। यह बल, वीर्य का वर्द्धक था । उस समय की प्रजा का मुख्य आहार था । कालान्तर में काल के प्रभाव से यह रस निकाला जाने लगा। वृषभदेव ने तपश्चर्या में जब रस-परित्याग किया तो उसमें इक्षुरस का त्याग भी
सम्मिलित था । मपु० २०.१७७, ६३.३५४, पपु० ३.२३३-२३४ इश्वर-(१) मध्यलोक का सातवाँ द्वीप । हपु० ५.६१५
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