Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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५४ : जैन पुराणकोश
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इन्दुमालिनी - (१) आलोकनगर की एक आर्यिका । पपु० ११.१५० (२) सूर्यरज की भार्या बाली सुग्रीव और बीप्रभा इन तीनों की जननी । पपु० ९.१, १०-१२ इन्दुरेखा अयोध्या के राजा पदसंजय की रानी, जितरा की जननी पपु० ५.६०
इम्बुवर — जम्बूद्वीप के बाद स्थित अन्तिम सोलह द्वीप सागरों में पन्द्रहवाँ द्वीपसागर । पु० ५.६२५
इन्द्र - ( १ ) भरतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के रथनूपुर नगर के राजा विद्युतप्रभ का बड़ा पुत्र । यह विद्युन्माली का अग्रज था । राजा होने के पश्चात् इसके शत्रुओं का दमन अर्जुन ने किया था । पपु० १.५९-६०, पापु० १७४१-४५, ६०-६२
(२) चन्द्रशेखर का पुत्र, चन्द्ररथ का पिता । पपु० ५.४७-५६ (३) देवों के स्वामी । ये महायुध वज्र के धारक होते हैं । पपु० २.२४३ - २४४, पु० ३.१५१, कल्पवासी, भवनवासी और व्यन्तर देवों के जितने इन्द्र होते हैं उतने ही प्रतीन्द्र भी होते हैं। कल्पवासी देवों के बारह इन्द्रों के नाम हैं- १. सौधर्मेन्द्र २. ऐशानेन्द्र ३. सनत्कुमारेन्द्र ४. माहेन्द्र ५. ब्रह्मेन्द्र ६. लान्तवेन्द्र ७ शुक्रेन्द्र ८. शतारेन्द्र ९. आनतेन्द्र १० प्राणतेन्द्र ११. अरणेन्द्र १२. अच्युतेन्द्र । भवनवासी देवों के बीस इन्द्रों के नाम हैं- १. चमर २. वैरोचन ३. भूतेश ४. धरणानन्द ५. वेणुदेव ६. वेणुधरा ७ पूर्ण ८. अवशिष्ट ९. जलप्रभ १०. जलकान्ति ११. हरिषेण १२. हरिकान्त १३. अग्निशिखी १४. अग्निवाहन १५. अमितगति १६. अमितवाहन १७. घोष १८. महाघोष १९ वेलंजन और २०. प्रभंजन । व्यन्तर देवों के सोलह इन्द्र है- १. अतिकाय २. काल २. किन्नर ४. किम्पुरुय ५. गीतरति ६. पूर्णभद्र ७ प्रतिरूपक ८. भीम ९. मणिभद्र १०. महाकाय ११. महाकाल १२. महाभीम १३. महापुरुष १४. रतिकीर्ति १५. सत्पुरुष १६. सुरूप । ज्योतिष देवों के पाँच इन्द्र हैं—चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारक । वीवच० १४.४१-४३
(४) जमदग्नि का पुत्र । मपु० ६५.९२
(५) द्य तिलकपुर के राजा चन्द्राभ का मंत्री । मपु० ७४. १४१
(६) रयनपुर के राजा सहबार और उसकी रानी मानसुन्दरी का पुत्र । गर्भावस्था में माता को इन्द्र के भोग भोगने की इच्छा होने के कारण पिता ने पुत्र का यह नाम रखा था। इसने इन्द्र के समान सुन्दर महल बनवाया था, अड़तालीस हज़ार इसकी रानियाँ थीं, ऐरावत हाथी था, चारों दिशाओं में इसने लोकपाल नियुक्त किये थे, इसकी पटरानी का नाम शची था और सभा का नाम सुधर्मा था । इसके पास वज्र नाम का शस्त्र, तीन सभाएँ, हरिणकेशी सेनापति, अश्विनीकुमार वैद्य, आठ वसु, चार प्रकार के देव, नारद, तुम्बरु, विश्वासु आदि गायक, उर्वशी, मेनका, मंजुश्वनी अप्सराएं और वृहस्पति मंत्री थे । इसने अपने वैभव को इन्द्र के समान ही नाम दिये थे । रावण के दादा माली को मारकर इसने इन्द्र के सदृश राज्य किया था । पपु० ७.१ ३१, ८५-८८ अन्त में दशानन में इसे युद्ध में हराया था। रावण के द्वारा बद्ध इसे पिता सहस्रार ने बंधनों से
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इन्दुमालिनी-द
मुक्त कराया था । असार सुख के स्वाद से सचेत करने के कारण इसने रावण को अपना महाबन्धु माना था। अन्त में निर्वाणसंगम मुनि से धर्मोपदेश सुन कर यह विरक्त हुआ और पुत्र को राज्य देकर अन्य पुत्रों और लोकपालों महित इसने दीक्षा धारण कर ली तथा तपपूर्वक शुक्लध्यान से कर्मक्षय करके निर्वाण प्राप्त किया । पपु० १२.३४६३४७, १३.३२-१०९
इन्द्रक - ( १ ) रत्नप्रभा आदि पृथिवियों के पटलों के मध्य में स्थित बिल । इन बिलों को चारों दिशाओं और विदिशाओं में श्रेणीबद्ध बिल होते हैं। आगे ये बिल त्रिकोण तथा तीन द्वारों से युक्त होते हैं। इन्हें इन्द्रक निगोद भी कहा गया है। हपु० ४.८६, १०३, ३५२ १५९ विमानों में एक विमान मपु०
(२) अच्युतेन्द्र १०.१८६-१८७ इन्द्रक निगोद-नरकों के इन्द्रक बिल । ये सभी तिकोने तथा तीन द्वारों से युक्त होते हैं। इनके सिवाय श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक निगोदों में कितने ही बिल दो द्वारों से युक्त और दुकोने, कितने ही तीन द्वारों से युक्त और तिकोने कितने हो पांच द्वारों से युक्त और पंचकोने और कितने ही सात द्वारों से युक्त तथा सतकोने होते हैं । हपु०
४.३५२
इन्द्रकेतु - रावण का योद्धा । इसने अंगद के विरुद्ध माया से युद्ध किया था । मपु० ६८.६२०.६२१
इन्द्रगिरि - ( १ ) गान्धार देश की पुष्पकलावती नगरी का राजा। इसकी
रानी का नाम मेरुमती, अपरनाम मेरुसती था। इन दोनों के हिमगिरि नाम का पुत्र और गान्धारी नाम की पुत्री थी। कृष्ण ने हिमगिरि अपनी बहन हयपुरी के राजा सुमुख को दे रहा है ऐसा नारद से जानकर युद्ध में हिमगिरि को मार डाला था और वे गान्धारी को हर लाये थे जिसे बाद में उन्होंने पटरानी बनाया था। मपु० ७१.४२४-४२८. हपु० ४४.४५-५१, ६०.९३
(२) हरिवंशी राजा वसुगिरि का पुत्र और रत्नमाला का पिता । पपु० २१.७-९
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इन्द्रगुदरविषेणाचार्य के परदादा प० १२१.१६८ इन्द्रचर्म --- रावण के पक्ष का एक विद्याधर । मपु० ६८.४३१ इन्द्रच्छन्द — एक दैदीप्यमान हार। इसमें एक हजार आठ लड़ियाँ होती हैं । इन्द्र, चक्रवर्ती और जिनेन्द्र इसे धारण करते हैं । मपु० १५.१६ १६.५६ इन्द्रच्छन्दमाल – इन्द्रच्छन्द के मध्य में मणि और लगा देने से यह हार बन जाता है । मपु० १६.६२
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इन्द्रजाल - क्षण में एक क्षण में अनेक क्षण में पास, क्षण में दूर, ऐसी विलक्षण क्रियाओं से युक्त इन्द्र का नृत्य । मपु० १४.१३१ इन्द्रजित् - दशानन और मन्दोदरी का पुत्र । इसका जन्म नाना के घर हुआ था। सुग्रीव के साथ युद्ध करके इसने उसे नागपाश लिया था । इसके पश्चात् लक्ष्मण द्वारा यह भी बाँध लिया गया था । रावण का दाह संस्कार करने के पद्म पश्चात् सरोवर पर राम
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