Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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आगमभक्ति - आत्मष्यान
और जम्बूस्वामी, पाँच श्रुतकेवली - विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहू, ग्यारह दसपूर्वधारी आचार्य-विशाख क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिमान् (बुद्धिल), गंगदेव और धर्मसेन, पाँच ग्यारह अंगधारी आचार्य नक्षत्र, जयमाल ( यशपाल), पाण्डु ध्रुवसेन और कंसाचार्य । चार आचारांग के ज्ञाता मुनि गुभव ( यशोभद्र ) भद्रबाहु यशोबा और लोहाचार्य मपु० २.१३७-१४९, ९.१२१, २४.१२६, ६७.१९१-१९२, हपु० १.५५ ६५ आगमभक्ति - सोलहकारण भावनाओं में एक भावना – मन, वचन, काय
से भाव- शुद्धिपूर्व आगम में अनुराग रखना । मपु० ६३.३२७, ३३१ आगमसार - अयोध्यापति राजा दशरथ का मंत्री । मपु० ६७.१८२-१८३ आगमाभास - अनाप्त पुरुषों के वचन । मपु० २४.१२६
आगार - घर या मन्दिर का एक प्रकार। इसमें आंगन और छोटे से उपवन का होना आवश्यक होता था । मपु० ४७.८१ आग्नेयास्त्र - कराल अग्निज्वालाओं से युक्त एक विद्यास्त्र (बाण) । इसे वारुणास्त्र से नष्ट किया जाता था। देवोपनीत एवं दैदीप्यमान इस अस्त्र को चिन्तावेग नामक देव ने राम और लक्ष्मण को दिया था । यह अस्त्र जरासन्ध के पास भी था । पपु० १२.३२२-३२४, ६०.१३११३८, ७४.१०२-१०३ । हपु० २५.४७, ५२.५२ आचाम्ल - कांजी सहित भात - एक रसाहार । यह मित और हलका आहार दो या अधिक उपवासों के पश्चात् लिया जाता है । मपु० ७६. २०६
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आचाम्लवर्धन - एक उपवास । इसे कर्मबन्धन विनाशक, स्वर्ग एवं परमपद प्रदायी, परम तप कहा है । मपु० ७.४२, ७७ ७१.४५६ इसमें प्रथम दिन उपवास तथा दूसरे दिन एक बेर बराबर, तीसरे दिन दो बेर बराबर इस प्रकार बढ़ाते हुए ग्यारहवें दिन दस बेर बराबर भोजन बढ़ाया जाता है । पश्चात् एक-एक बेर बराबर भोजन घटाकर अन्त में उपवास किया जाता है। पूर्वार्ध के दस दिनों में नीरस भोजन करना होता है तथा उत्तरार्ध के दस दिनों में पहली बार जो भोजन परोसा जाये वही ग्रहण किया जाता है। हपु० ३४.९५-९६ - आचार-सम्पदा — सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप सम्पत्ति | मपु० ९.९२
आचारांग — द्वादशांगरूप श्रुतस्कन्ध का प्रथम अंग । इसमें अठारह हज़ार पद हैं जिनमें मुनियों के आचार का वर्णन किया गया है । मपु० ३४. १३३ १३५, हपु० २.१२, १०.२७
आचार्य मुनियों के दीक्षागुरु और उपदेश दाता स्वयं भावरमधील होते हुए अन्य मुनियों को आचार पालन करानेवाले मुनि । ये कमल के समान निर्लिप्त, तेजस्वी शान्तिप्रदाता, निश्चल, गम्भीर और निःसंगत होते हैं । पपु० ६.२६४-२६५, ८९.२८, १०९.८९ आचार्यभक्ति-सोलहकारण भावनाओं में एक भावना आचायों में मन,
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वचन और काय से भावों की शुद्धि के साथ श्रद्धा रखना । मपु० ६३.३२७, ३३१, हपु० ३४.१४१
आजानेय - उच्च जाति के कुलीन घोड़े । मपु० ३०.१०८
मैनपुराणको ४५
आजीविका हेतु अति मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छः आजीविका साधन वृषभदेव ने बताये थे । मपु० १६.१७९ आज्य - भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४२ आज्ञा - पारिव्राज्य क्रिया के सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद । इससे पारिव्राज्य का साक्षात् लक्षण प्रकट होता है । इसे परमेष्ठी का गुण कहा गया है । आज्ञा देने का अभिमान छोड़कर मौन धारण करनेवाले मुनि इस परमाज्ञा को प्राप्त करते हैं। इसे सुर और असुर भी शिरोधार्य करते हैं । मपु० ३९.१६२-१६५, १८९ दे० पारिव्राज्यक्रिया आज्ञानिक — अन्योपदेशन मिथ्यादर्शन के चार भेदों में चीचा भेद(हिताहित की परीक्षारहित, अज्ञान-मूलक और विवश होनेवाला श्रद्धान) । हपु० ५८.१९४-१९५ आज्ञाविचय-- धर्मध्यान के दस भेदों में नवम भेद-बन्ध, मोक्ष आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का आगमानुसार ध्यान करना । मपु० ३६.१६१, हपु० ५६.४९ आज्ञाव्यापाविकीक्रिया -साम्परायिक आस्रव की उन्नीसवीं क्रिया-आगम की आज्ञा के अनुसार आवश्यक आदि क्रियाओं के करने में असमर्थ मनुष्य के द्वारा मोह के उदय से उनका अन्यथा निरूपण । हपु० ५८. ७७ दे० साम्परायिक आस्रव आज्ञासम्यक्त्व - सम्यग्दर्शन के दस भेदों में प्रथम भेद - सर्वज्ञ देव की आज्ञा से छः द्रव्यों में रुचि (श्रद्धा) होना । मपु० ७४.४३९-४४१, वीवच० १९.१४३ दे० सम्यक्त्व
आढकी— अरहर । यह उन धान्यों में से एक है जो कल्पवृक्षों के अभाव होने पर नाभिराज के समय में उत्पन्न हुए । नाभिराज ने प्रजा को उनका उपयोग सिखाया था । मपु० ३.१८७ आतकी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सदृतु नगर के निवासी भावन नाम के वणिक की भार्या, हरिदास की जननी । पपु० ५.९६-९७ आतपत्र - चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक रत्न छत्र । मपु० ३७.८४, ६३.४५८
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आतपयोग / आतापनयोग — ग्रीष्म ऋतु में सूर्य को ताप से उत्पन्न असह्य दुःखों को सहना, पर्वत के अग्रभाग की तप्त शिलाओं पर दोनों पैर रखकर तथा दोनों भुजाएँ लटका कर खड़े होना, उग्रतर तीव्र ग्रीष्म का ताप सहन करना । तीर्थंकर महावीर इस योग में स्थिर हुए थे तथा इसी योग में उन्हें केवलज्ञान हुआ था। मपु० ३४.१५१- १५४, पपु० ९.१२८, हपु० २.५८-५९, ३३.७६
आतोय - वाद्ययन्त्र । ये तत, अवनद्ध घन और सुषिर के भेद से चार प्रकार के होते हैं । मपु० १९.१४२
आत्मयात - ऐसे मरण से जीव चिरकाल तक कच्चे गर्भ में दुख प्राप्त करते हैं और वे गर्भ पूर्ण हुए बिना ही मर जाते हैं । पपु० १२.४७
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आत्मश -- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १६२ आत्मध्यान- आत्मा का ध्यान इससे केवलज्ञान उपलब्ध होता है । वीवच० १८.८
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