________________ 58 3 श्रावक-द्वादशव्रत धान की जितनी जरूरत हो उसका वर्षभर के लीये सेर या कलसी में परिमाण कर लेना / व्यापार के लिये अधिक रखना पडे उसकी जयणा रखना। (3) क्षेत्र-धान बोने के खेत तथा बाग बगीचे इनका परिमाण करना। (4) वास्तु-घर हवेली नोहरा तथा दूकान बिल्डींग विगैरह, इनका परिमाण करना / घर के दूसरी खिडकी खोलने तथा दूकान, तबेला, गोदाम, वखारी आदि किराये रखनेकी जयणा / किराये के मकानकी, अपने कुटुम्बी संबंधी और मित्र के मकानकी, मालिक के मकान की मरम्मत कराने अथवा कमठा करानेकी जयणा / (5) रुप्य-नाणे के रूप में 'चलते हुए सिक्कों को छोड कर चांदी, चांदी के गहने आदि, इनका तोल में परिमाण करना। (6) सुवर्ण-सिक्कों को छोड कर शेष सोना तथा भूषणगत सोना इस का परिमाण करना। (7) कुप्य-तांबा, पीतल, सीसा, लोह आदि धातु के बरतन आदिका नाम कुप्य है / इनकी संख्या कर अथवा मणों या सेरों में तोल कर कुल इतने या इतने मण धातु रखनेका नियम कर लेना / कारण वश दूसरों के वास्ते परिमाण के उपरान्त बरतन लाने पडे तो जयणा। . (8) द्विपद-द्विपद का अर्थ यहां मनुष्य है अपने आश्रित