________________ 62 , 3 श्रावक-द्वादश व्रत व्रतों के पालन से पूर्वोक्त पांच अणुव्रतों की पुष्टि अर्थात् उत्तरोत्तर गुणवृद्धि होती है जैसे दिशिपरिमाण व्रत धारण करने से परिमाण के ऊपर की तमाम दिशाओं के जीवों को अभयदान मिलता है और प्राणातिपातविरमण व्रत की पुष्टि होती है। बाहर के तमाम जीवों के साथ झूठ बोलना बंद होने से दूसरे व्रत की पुष्टि होती है। बाहर के क्षेत्र में रही हुई वस्तु की चोरी का त्याग होने से तीसरे व्रत की पुष्टि होती है। बाहरी क्षेत्र की सर्वस्त्रियों से मैथुन चेष्टा का त्याग होने से चोथे व्रत की पुष्टि होती है और बाहरी सभी चीज वस्तुओं का क्रय विक्रय बंद होने से पांचवें व्रत की पुष्टि होती है। दिक्परिमाण व्रत. स्वरूप__ पूर्व पश्चिम उत्तर और दक्षिण ये चार दिशा और आग्नेयी (अग्नि कोण) नैर्ऋत कोग, वायव्य कोण और ईशान कोण ये चार विदिशा कहलाती हैं। ऊर्च ( ऊपर) और अधो दिशा ( निचली दिशा ) मिलाने से कुल 10 दिशाएं होती हैं। इन दश दिशाओं में जाने आने का नियम करना 'दिपरिमाण व्रत' है। दिशाओं में जाना आना तीन तरह से होता है जलमार्ग से स्थलमार्ग से और आकाश मार्ग से। .. जलमार्गसे नाब, आगबोट, स्टीमर आदिमें, स्थलमार्ग से