________________ 303 ... श्रीजैनशान-गुणसंग्रह . मणि माणिक मोती पूरती परदेशी रे, राजा हरिश्चन्द्र घर नार, मित्र परदेशी रे। एक दिन ऐसा हो गया परदेशी रे, परघर की पनीहार, मित्र परदेशी रे॥४॥ हाथे पर्वत तोलते परदेशी रे, करते नरपति सेव, मित्र परदेशी रे। सो भी नर सब गल गये परदेशी रे, तेरी क्या गिनती होय, मित्र परदेशी रे // 5 // छोडके मंदिर मालिया परदेशी रे, करले जिनसुं राग, मित्र परदेशी रे / चादिनकी कर शोचना परदेशी रे, लगसी इन तन आग, मित्र परदेशी रे॥६॥ झूठो सब संसार है परदेशी रे, सुपना का सौ खेल, मित्र परदेशी रे / नग कहे तास समझ के परदेशी रे, करले प्रभुसुं मेल, मित्र परदेशी रे // 7 // - वैराग्यउपदेशक सज्झाय . हक मरना हक जाना, यारो हक० / को मत करना गुमाना, यारो हक० / आंकणी / ओढण माटी पेरण माटी, माटी का है सराना /