________________ - श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 341 मुनि मन अभिमान आणी, खंड करी नाख्यो तरणुं ताणी हो, मुनिवर० / सोवन वृष्टि हुइ बार कोडी, वेश्या वनिता कहे कर जोडी हो, मुनिवर० // 5 // ढाल दूसरी थे तो उभा रहीने अरज, अमारी सांभलो साधुजी / थे तो म्होटा कुलना जाणी, मूकी द्यो आंमलो साधुजी // 1 // थे तो लइ जाओ सोवन कोड, गाडां उंटे भरी साधुजी, थां रे केसरीये कसबीने कपडे, मोही रही साधु जी / थारी मूर्ति मोहनगारी, जगतमा सोही रही सा०, थांरी आखंडीयारो नीको, पाणी लागणो सा० // 2 // थारो नवलो जोवन वेष, विरहदुखभाजणो सा०, ए तो जंत्र जटित कपाट, कुची मैं कर रही सा० / मुनि वलवा लागो जाम, के आडी उभी रही सा०, में तो ओछी स्त्रीनी जात, मति कही पाछली सा०, थे तो सुगुणा चतुर सुजाण, विचारो आगली / सा० // 3 // थे तो भोगपुरंदर, हुं पण सुंदरी / सा०, थे तो पहेरो नवला वेष, घरेणा जरतरी / सा० /