Book Title: Jain Gyan Gun Sangraha
Author(s): Saubhagyavijay
Publisher: Kavishastra Sangraha Samiti

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Page 507
________________ 488 रात्रिपोषध चत्तारि सरणं पवजामि, अरिहन्ते सरणं. पवजामि, सिद्धे सरणं पवजामि, साहू सरणं पवजामि, केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवजामि // 7 // पाणाइवायमलिअं, चोरिक्क मेहुणं दविणमुच्छं। कोहं, माणं, मायं, लोमं पिज तहा दोसं // 8 // कलहं अब्भक्रवाणं, पेसुन्नं रइ-अरइसमाउत्तं / परपरिवायं माया-मोसं मिच्छत्तसल्लं च // 9 // वोसिरिंसु इमाई, मुक्खमग्गसंसग्गविग्धभूआई / दुग्गइनिबन्धणाई, अट्ठारस पावठाणाई // 10 // एगोहं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सइ / एवं अदीणमणसो अप्पाणमणुसासइ // 11 // एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ। सेसा मे बाहिरा भाषा, सव्वे संयोगलक्खणा // 12 // संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरंपरा / . तम्हा संयोगसम्बन्धं, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं॥१३।। अरिहन्तो मह देवो, जावजीवं सुसाहुणो गुरुणो! जिगपन्नत्तं तत्तं, इय सम्मत्तं मए गहिअं // 14 // (यह १४वीं गाथा तीन बार बोल के सब 7 नवकार गिने, फिर आगे की गाथायें बोलें)। खमिअ खमाविअ मइ खमिअ, सबह जीवनिकाय / सिद्धह साख आलोयणह, मुज्झह न वइर-भाव / / 15 / /

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