________________ 181 त्रा श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह "आद्यैः पञ्चदशभिस्त्रीणि त्रीण्यन्तरा त्यजन् / . त्रिनाडीचक्र चन्द्रार्क-जन्मवेधे न जीवति // " . अर्थात् बीच में तीन तीन नक्षत्रों को छोडते हुए आर्द्रादि पंद्रह नक्षत्रों से त्रिनाडीचक्र बनाना। इसमें चन्द्रनक्षत्र सूर्यनक्षत्र और रोगीका जन्म नक्षत्र ये तीनों नक्षत्र एक नाडी में हों उस समय बीमार पड़ने वाला रोगी मर जाता है। .. ____ सूर्य नक्षत्र और रोगिनक्षत्र एक नाडी में हों तो अधिक कष्ट और सूर्य नक्षत्र रोगीनक्षत्र चंद्र नक्षत्र ये तीनों भिन्न भिन्न नाडियों में हों तो स्वल्प कष्ट भोग कर अच्छा हो जाता है। रोगिमृत्युज्ञानार्थ त्रिनाडी चक्र तीसरा३ पु. अ. चि. स्वा. पू. उ. उ. रे. मृ. 2 पु. म. ह. वि. मू. श्र. पू. अ. रो. 1 आ पू. उ. . अ. 'ज्ये... ध. श. भ. कृ. . इस तीसरे नाडीचक्र में भी आर्द्रा से ही नक्षत्र लिखे जाते हैं, परंतु ऊपर के दो चक्रों में तीन तीन के बाद तीन तीन नक्षत्र ऊपर नीचे बाहर लिखे जाते हैं वैसे इसमें नहीं लिखे जाते, इसमें तो आर्द्रा पुनर्वसु और पुष्य आदि मध्य और अंत्यनाडी में लिखकर फिर आश्लेषा मघा और पूर्वाफाल्गुनी अंत्य मध्य और आदि नाडी में लिखना, इसी प्रकार नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे लिखते हुए 27 नक्षत्र तीन