________________ . श्राप श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह एह माहरे अखयं आतम असंख्यात प्रदेश रे।। ताहरा गुण जे अनंता किम करुं तास निवेश रे। प्रभु० // 5 // एक एक प्रदेश ताहरे गुण अनंतनो वास रे। एम करी तुज सहज मीलत हुए ज्ञान प्रकाश रे / प्रभु // 6 // ध्यान ध्याता ध्येय एके एकीभाव होय एम रे / एम करतां सेव्य सेवक भाव होए क्षेम रे / प्रभु०॥७॥ शुध्ध सेवा ताहरी जे होय अचल स्वभाव रे / ज्ञानविमल सुरींद प्रभुता, होय सुजस जमाव रे / प्रभु० // 8 // जिन-स्तवन (तर्ज-हे प्रभु आनंद दाता०) छोड जिनवर को, दुनीसे दिल लगा कर क्या करूं / हाथ हीरा मिल गया, कंकर को ले कर क्या करूं // 0 // भवार्णव के ताप से, जलता फिरूं कइ कालसे / कल्पछाया मिल गइ, छाते को सिर पर क्या धरूं // 1 // मोह अंधेरी रैन में, चलते ही खाई ठोकरें। ज्ञान दिनकर देख फिर, बत्ती जलाकर क्या करूं // 2 // काल अनादि कर्म के हूं, रोग से पीडित हुआ। धर्म बूंटी मिल गई, वैद्यों से मिल कर क्या करूं // 3 // देव देवी सेव से, जलता रहा संसार में। मोक्ष दाता अब मिला, पर की पूजा कर क्या करूं // 4 //