________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह। यह जीव अनादि काल से परिग्रहमें आसक्त है / इसकी इच्छा. कभी पूरी नहीं होती, उत्तराध्ययन सूत्र में इच्छा को आकाश की उपमा दी है इसका भी यही कारण है कि जीव की 'इच्छा' का कहीं अंत ही नहीं आता। इस अमर्यादित इच्छा को मर्यादित करने के लिये इस को परिमित करना चाहिये। परिग्रह के दो भेद हैं-१ द्रव्यपरिग्रह और 2 भावपरिग्रह / धन धान्यादि नौ प्रकार के परिग्रह को 'द्रव्यपरिग्रह' कहते हैं और लोभ ममता मूर्छा को 'भावपरिग्रह' / द्रव्यपरिग्रह के 1 धन 2 धान्य 3 क्षेत्र 4 वास्तु 5 रुप्य 6 सुवर्ण 7 कुप्य 8 द्विपद और 9 चतुष्पद ये नव भेद हैं। (1) धन-दोआनी, पारली, धेली, रुपया, विगैरह रोकड और हुंडी, नोट विगेरह, अथवा गणिम-(नालियर विगैरह जो गिनती से बेचा जाय) धरिम-(गुड प्रमुख जो तोल कर बेचा जाय) परिच्छेद्य-(सोना चांदी रत्न जवाहरात आदि जो परीक्षा से बेचा जाय) मेय-(धी दूध आदि वस्तु जो माप कर बेची जाय) भेद से धन 4 प्रकार का है / इसका परिमाण करना इस को 'धन परिमाण' कहते हैं। - (2) धाग्य-१ चावल, 2 गेहूं, 3 जुआर, 4 बाजरी, 5 जव, 6 मुंग, 7 मोठ, 8 उडद, 9 डूंठ, 10 बोडा, 11 मटर, 12 तुअर, 13 किसारी, 14 कोद्रवा, 15 कंगणी, 16 चणा, 17 वाल, 18 मेथी, 19 कुलथ, 20 मसूर, 21 तिल, 22 मंडवा, 23 कूरी, 24 बरटी, 25 मक्की इन में से जिस