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प्रवचन-२ मात्र धनदृष्टि और भोगदृष्टि तो नहीं है न? अर्थप्रधान और कामप्रधान तो नहीं बने हो न?
सभा में से : महाराजश्री, ऐसे ही बन गए हैं। __महाराजश्री : ऐसा लगता है आपको कि अर्थप्रधान और कामप्रधान जीवन अच्छा नहीं है? धन-दौलत और भोगसुख का ही आदर्श बनाकर जीवन जीना, मानवजीवन की बर्बादी है? आप गृहस्थ हैं, आप संसारी जीवन जीते हैं, आपको पैसा चाहिए और भोगसुख भी चाहिए, परन्तु आपकी दृष्टि क्या होनी चाहिए? आपका लक्ष्य क्या होना चाहिए? निःश्रेयस्! आत्मकल्याण! धन कमाना और बात है, धन का ममत्व और चीज है। भोगसुख भोगना एक बात है, भोगसुख में आसक्ति दूसरी बात है। बहुत बड़ा अन्तर है इन दो बातों में। आप अनासक्त बनने का आन्तरिक पुरुषार्थ करो। इस ग्रन्थ में आगे यह पुरुषार्थ बताया है। करना है न? ध्यान रखना, अर्थपुरुषार्थ में ही मानवजीवन समाप्त हो गया, तो मरकर दुर्गति के शिकार हो जाओगे। पशु योनि, नरक योनि या निम्नस्तर की मनुष्य योनि के अलावा दूसरी गति नहीं मिलेगी। दुःख और संताप के अलावा वहाँ कुछ नहीं है। धर्म को अर्थ-काम का माध्यम मत बनाइए : ___ 'धर्म धन देता है, धर्म भोगसुख देता है' - यह प्रतिपादन मनुष्य के मन में धर्म के प्रति, धर्म की शक्ति के प्रति श्रद्धा-सद्भाव पैदा करता है। 'धर्म करूँगा तो धन मिलेगा, धर्म करने से भोगसुख मिलेंगे...' यह भावना खतरनाक है। इससे मनुष्य धर्म के प्रति आकर्षित नहीं होता, परन्तु अर्थ-काम के प्रति आकर्षित होता है। वह धर्म को अर्थ-काम का साधन बना देता है! धर्मसाधना में अर्थ-काम को साधनरूप में इस्तेमाल करना उचित है, परन्तु अर्थ-काम की साधना में धर्म को साधनरूप में ग्रहण करना बिल्कुल अनुचित है, मूर्खता है। ___ कोई भी बात हो, अच्छी हो या बुरी हो, आप उस बात को किस दृष्टि से ग्रहण करते हैं-यह महत्त्वपूर्ण है। स्त्री तो वही की वही है, एक मनुष्य उसको सती-महासती की दृष्टि से देखता है, दूसरा पुरुष उसी स्त्री को रूपवती यौवना की दृष्टि से देखता है। इसी प्रकार पुरुषों की बातें हम सुनते हैं, हमारी बुद्धि के अनुसार हम उन बातों को समझेंगे। यदि हमारी दृष्टि अर्थप्रधान है तो हम सोचेंगे : 'आचार्यश्री ने कहा है कि धर्म से धन मिलता है, तो मैं धर्म करूँगा तो मुझे धन मिलेगा। धन पाने के लिए धर्म किया जा सकता
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