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प्रवचन-१८
२३४ - मैत्री और करुणा की पहली शर्त है : न तो किसी भी जीव
को अपना दुश्मन मानना और न ही किसी जीव को तनिक
भी पीड़ा पहुँचाने का इरादा रखना। 1.अशुद्ध और मलिन विचारों से गंदे बने हुए दिल के आंगन में
परमात्मा की कृपा कभी अवतरित नहीं हो सकती! हमेशा सोचो : 'मैं तमाम जीवों को क्षमा देता हूँ। सभी जीव मुझे क्षमा कर दें। सभी जीवों के साथ मेरी मैत्री है। किसी
के प्रति वैर नहीं है।' • सुव्रत सेठ ने अनित्य इत्यादि भावनाओं से सतत भावित होकर
जड़-राग को उखाड़ फेंका था अपने दिल की धरती पर से! 5 मैत्री, करुणा आदि भावनाओं से जीवद्धेष को जला दिया था। .क्रूर और निर्दय दिल में भला, धर्म के लिए कोई स्थान कभी = हो सकता है क्या?
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प्रवचन : १८
परमकृपानिधि आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी 'धर्म'तत्त्वका स्वरूप समझाते हुए कहते हैं : वह अनुष्ठान धर्म है कि जो जिनवचनानुसार है, यथोदित है और मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य भाव से युक्त है। आप लोगों को अनुष्ठान तो शुद्ध ही मिले हैं, अनुष्ठान करने चाहिए यथोदित और साथ-साथ आपके हृदय में चाहिए मैत्री वगैरह भावनाएँ। इतना हो जाय तो अनुष्ठान 'धर्म' बन जाय। ऐसी धर्मआराधना आपको आनन्द से भर देगी। धर्मक्रियाएँ रसपूर्ण बनेंगी। शास्त्रदृष्टि तो चाहिए ही : _ 'हम लोग धर्मक्रिया करते हैं परन्तु आनन्द नहीं आता है, मजा नहीं आता है।' ऐसी शिकायत करते हो न आप लोग? शिकायत दूर हो सकती है। जिस प्रकार अनुष्ठान करने का शास्त्रोक्त विधान हो, उस प्रकार अनुष्ठान करने का लक्ष बनाइए और हृदय को मैत्री आदि भावनाओं से भावित करते रहिए । प्रतिदिन मैत्री आदि भावनाओं का अभ्यास करते रहें। इसलिए विचारक्षेत्र को
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