________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रवचन-२३
३०५ . जो आदमी जैसा उसे बनना होगा वह वैसा ही बनेगा। हम लाख उठापटक करें या झल्लाएँ आखिर तो जो होना है वह होकर ही रहेगा। आप या मैं. उसमें तनिक भी परिवर्तन नहीं ला सकते! आज दिन तक आत्मा के विकारी स्वरूपों के बारे में सोचा, अब वह सब छोड़कर हमें कुछ वैसा आत्मध्यान करना है जो हमने आज दिन तक कभी किया ही नहीं! .पुण्यकर्म के उदय से मिलनेवाले तमाम भौतिक-पौद्गलिक
सुख असार हैं, क्षणिक हैं, आत्मा का स्वाधीन सुख तो है गुणरुप है...जो कि शाश्वत् है-सारभूत है। सांसारिक कोई भी अच्छी या बुरी लगनेवाली चीजों में यह ताकत नहीं है कि जीवात्मा में राग-द्वेष पैदा कर सके। मोहविकार के वश हुआ अपना मन राग-द्वेष को पैदा करता है। वस्तुएँ या व्यक्ति तो बहाना मात्र होते हैं।
*
प्रवचन : २३
-
परम करुणावन्त ज्ञानयोगी आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में धर्म का स्वरूपदर्शन करा रहे हैं। धर्म का भावात्मक स्वरूप समझाते हुए वे मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य इन-चार भावनाओं की अनिवार्यता बताते हैं । अर्थात् जिस मनुष्य को धर्माराधन करना है, उस मनुष्य का हृदय इन भावनाओं से प्रभावित होना चाहिए | मैत्री, करुणा और प्रमोद-इन तीन भावनाओं के पश्चात् हम माध्यस्थ्य-भावना पर चिन्तन कर रहे हैं। ___ मनुष्य के जीवन में यह माध्यस्थ्य-भावना अथवा उपेक्षा-भावना अत्यन्त उपयोगी है। जब स्वजन, परिजन वगैरह की ओर से प्रतिकूल आचरण होता हो, मन अशान्त और उद्विग्न हो जाता हो, तब इस भावना का चिन्तन करो। इस भावना का सहारा लो। आपका मन शान्ति का अनुभव करेगा, आपका उद्वेग दूर हो जाएगा।
For Private And Personal Use Only