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प्रवचन-२३
३१४ दूसरा क्या मिलता है? क्या धन-दौलत मिल जाती है? मिलता कुछ नहीं, खोने का ही धंधा है। अपने स्वयं के सुख को खो देने का है। स्वयं की प्रसन्नता खो देने की है। इसलिए परचिन्ता करना छोड़ दो।
दूसरों की योग्यता के अनुसार उनका पथ-प्रदर्शन करते रहो। दूसरों को अहित से बचाने के लिए प्रेरणा देते रहो, परन्तु जिनको आपकी प्रेरणा नहीं चाहिए, जिनको आपका मार्गदर्शन नहीं चाहिए, उनको आप जबरदस्ती प्रेरणा या मार्गदर्शन मत दिया करो। आपकी इच्छानुसार वे नहीं चले तो आप अशान्त मत बनो। एक बात समझ लो कि दुनिया में हर एक जीवात्मा के अपने-अपने कर्म हैं, अपने-अपने संस्कार हैं, उसी के अनुसार वे जीवन व्यतीत करेंगे। आप अपना मिथ्या आग्रह छोड़ दो। मन से आग्रह को निकाल दो। __ बाह्य दुनिया के साथ जितना अति आवश्यक हो उतना ही संबंध रखो। आन्तर जगत विशाल है। आंतर विश्व की यात्रा करने निकल पड़ो। ऐसा मत समझो कि मात्र जो आँखों से दिखता है उतना ही विश्व है! पाँच इन्द्रियों से अगोचर एक विशाल भावसृष्टि है। अपने स्वयं का अनंत...अनादि अतीतइतिहास है। अनन्त जन्मों की अनन्त कहानियाँ हैं। जब समय हो, जब परचिंता से ऊब जाओ, आप इस भावसृष्टि में चल पड़ो। प्रयत्न करते रहो, एक दिन आपको इस भावसृष्टि की यात्रा में सफलता मिलेगी। 'हम लोग तो ऐसी यात्रा नहीं कर सकते...हमारे पास वैसा ज्ञान नहीं, वैसी सूझ नहीं है' ऐसा मत सोचना। कभी भी निराशा से भरा चिंतन नहीं करना। कौन स्वजन? कौन पराया जन ?
अशान्त और बेचैन करनेवाली व्यर्थ चिन्ताओं से मुक्त होने का दृढ़ संकल्प करो। 'मुझे ऐसी अशान्ति उत्पन्न करनेवाली व्यर्थ परचिन्ता नहीं करनी है | स्वजनों से मुझे क्या लेना देना? ये लोग तो मात्र इस जन्म के स्वजन हैं...पूर्व जन्मों में मैंने कितने-कितने स्वजन किये और छोड़े? ये भी स्वजन कैसे? मैं स्वजन मानता हूँ, वे लोग मुझे स्वजन मानते हैं? नहीं मानते हैं मुझे स्वजन, तो मैं क्यों मानूं? कोई स्वजन नहीं है, कोई परजन नहीं है। इस संसार में स्वजन परजन बन जाता है, परजन स्वजन बन जाता है। कोई संबंध स्थिर नहीं है, शाश्वत् नहीं है। स्थिर और शाश्वत् है मेरी आत्मा! मैं अकेला हूँ। अकेला जन्मा हूँ, अकेला ही परलोक की यात्रा करूँगा। तो फिर अकेला ही जीवन क्यों न जीऊँ?
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