Book Title: Dhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रवचन- २४
३२१
पशुओं की कत्ल करनेवाले कसाई को भी आता है और शराब पीनेवालों को भी आता है। मज़ा आता है इसलिए सब कुछ नहीं किया जा सकता है। अज्ञानी को जिस-जिस कार्य में मज़ा आता है, ज्ञानी को नहीं आता। रागी को जिस कार्य में मजा आता है, विरागी को नहीं आता। यदि आपकी ज्ञानदृष्टितृतीय नेत्र खुल गया है तो आपको शत्रुता कतई पसंद नहीं आएगी। आप मैत्री ही पसन्द करेंगे।
अज्ञानी सोचता है : ‘इसने मुझे कष्ट दिया है, मेरा सुख छीन लिया है, मुझे परेशान किया है, मुझे सुख नहीं देता... इसलिए इसको तो मैं मेरा शत्रु ही मानूँगा। इसके प्रति मैत्री कैसी? वह मुझे शत्रु मानता है तो मैं उसको मित्र कैसे मानूँ? मुझे भी संसार में जीना है, संसार-व्यवहार में तत्त्वज्ञानी बने रहने से नहीं चलता... हम कोई साधु संत तो है नहीं...।' ऐसी विचारधारावालों में मैत्री कैसे हो सकती है? यदि ऐसे मूढ़ मनुष्य किसी से मैत्री करते दिखाई भी दें, तो भी स्वार्थपरवश! सभी जीवों के प्रति ऐसे लोग मैत्री नहीं बांध सकते । 'सारे जीव मेरे मित्र हैं-' यह उदात्त भावना उनकी मनःसृष्टि में नहीं हो सकती है । मैत्री : तीन प्रकार का चिंतन :
(१) ज्ञानी मनुष्य यों सोचता है : 'हे आत्मन्, तू सर्व जीवों के प्रति मैत्री को स्थापित कर, इस जगत में तेरा कोई शत्रु नहीं है, सब तेरे मित्र हैं, इस जीवन का तो विचार कर ! कितनी छोटी-सी है यह जिन्दगी ? पाँच-पचास साल की छोटी-सी जिंदगी में तू किस-किसके साथ शत्रुता बाँध रहा है? क्यों? शत्रुता से तुझे क्या मिलेगा? कुछ नहीं, मात्र क्लेश और अशान्ति !'
(२) 'हे आत्मन्, इस संसार में परिभ्रमण करते हुए तूने सभी जीवों के साथ सभी प्रकार के संबंध किये हैं। माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी... वगैरह सारे सबंध किये हुए हैं- उनके साथ अब क्या तूं शत्रुता करता है? शत्रुता भी क्या कायम टिकनेवाली है ? नहीं, पूर्व-जन्म का शत्रु इस जन्म में स्नेही बन जाता है, इस भव का स्नेही अगले जन्म में शत्रु बन जाता है। सारे संबंध ऐसे परिवर्तनशील हैं, तो फिर तू क्यों अपने हृदय में शत्रुता रखता है ? सारी जीवसृष्टि तेरा कुटुंब ही है ।
(३) 'हे आत्मन्! शत्रुता से तेरा ही सुकृत नाश होता है । शत्रुता का भाव शुभ कर्मों का नाश करता है । क्यों किसी से दुश्मनी रखना ? सभी जीव कर्मपरवश हैं। कर्मों की विचित्रता अपार है । तेरे प्रति शत्रुता रखनेवालों का भी तू अशुभचिन्तन मत कर। सज्जनों के लिए कलह, शत्रुता शोभा नहीं देते।
For Private And Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339