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प्रवचन-२४
३२३ पुण्यकर्म के उत्पादन हैं, 'प्रोडक्शन' हैं | आप मनुष्यगति में हो, आपके पास मनुष्यगति का आयुष्य है, आप 'उच्च' जाति के कहलाते हो, आपका शरीर निरोगी है, आपकी पाँचों इन्द्रियाँ परिपूर्ण हैं, आपका रूप अच्छा है, स्वर मधुर है, आप लोकप्रिय हैं, आपकी बात दूसरे लोग मान लेते हैं, आपका यश फैला है, आपका शरीर सुगन्धयुक्त है, आपकी चाल हंस जैसी है, आपके पास अच्छा धन है, परिवार है... यह सब पुण्यकर्म के उदय से है। जिनको पुण्यकर्म का उदय नहीं है, उनके पास ये सारे सुख नहीं होते हैं। इससे विपरीत उनके पास दुःखो का ढेर होता है। वे दुःखी होते हैं, द्रव्यदुःखी कहलाते हैं ये लोग | द्रव्य यानी पैसा नहीं, अपितु द्रव्य यानी बाह्य, द्रव्य यानी भौतिक। ___ भावदुःखी वह है जिनको मोहनीय कर्म का क्षयोपशम नहीं है। प्रबल 'मोहनीयकर्म' का उदय है। इस पापकर्म के उदय से मनुष्य की मति कलुषित होती है। सुदेव-सुगुरु और सद्धर्म के प्रति इसको श्रद्धा नहीं होती। इतना ही नहीं, कुदेव को सुदेव मानता है | कुगुरु को सद्गुरु मानता है, असद् धर्म को सद्धर्म मानता है! इसी पापकर्म के प्रभाव से मनुष्य क्रोधी, अभिमानी, मायावी और लोभी होता है।
इसी पापकर्म के उदय से जीवात्मा में विविध प्रकार के विकार उत्पन्न होते है। विषयवासना भी इसी कर्म के उदय का फल है। रोना और हँसना, खुश होना और नाखुश होना, राग करना या द्वेष करना... इसी कर्म की प्रेरणा से होता है। ऐसे मोहमूढ़ जीव भावदुःखी हैं। ये सारे दुःख मानसिक हैं, मन के भावों से संबंधित हैं, इसलिए भावदुःख कहलाते हैं। __ इन दोनों प्रकार के जीवों के प्रति अपने हृदय में करुणा होनी चाहिए। क्योंकि एक यहाँ दुःख भोग रहा है, दूसरा भविष्य को दुःखमय बना रहा है। पापाचरण करनेवाला स्वयं अपने भविष्य को दुःखपूर्ण बना रहा है। 'पापाद् दुखम्' - पाप का फल है दुःख! समझ गए इस बात को? दुःखी या पापी-दोनों के प्रति करुणाभावना रखने की है। करुणा से हृदय को नवपल्लवित रखने का हैं। ___ सभा में से : द्रव्य दुःखी के प्रति तो कभी करुणा आ जाती है, परन्तु पापी के प्रति करुणा नहीं आती है!
आप भी महात्मा बनना सीखें : ___ महाराजश्री : सही बात है आपकी, क्यूँकि आप निष्पाप हैं! निष्पाप को पापी के प्रति क्रूरता आना स्वाभाविक है!! कैसी पागल जैसी बात करते हो। आपके जीवन में पाप नहीं हैं क्या? आप लोगों के जीवन में असंख्य पाप भरे पड़े हैं और
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