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प्रवचन-२३
३०६ प्रत्येक जीवात्मा का अपना भावि निश्चित :
आपको लगता है कि आपका स्नेही-स्वजन अहितकारी कार्य कर रहा है, आपने वह कार्य नहीं करने की प्रेरणा दी, बार-बार प्रेरणा दी, फिर भी वह उस कार्य का त्याग नहीं करता है, करता ही रहता है, तो आप उसको कहना छोड़ दो। करने दो जो उसे जंचता हो। आप उसको रोकने का प्रयत्न मत करो | घबराना मत! 'यह ऐसा बुरा काम करता है, क्या होगा उसका?' सोचो ही मत! जो उसका भविष्य होगा, वही होगा। होगा ही वह। आप नहीं रोक सकते। आपने उचित प्रयत्न कर लिया । अनुचित प्रयत्न करने का साहस मत करो। अनुचित प्रयत्न करने से न उसको लाभ होगा, न आपको लाभ होगा। Let go कर दो। आप अपने मन को वैसा बना लो। आप एक सत्य सिद्धान्त समझ लो :
'येन जनेन यथा भवितव्यं
तद् भवता दुर्वारं रे... _जिस मनुष्य को जैसा बनना है, बनेगा ही। आप उसको रोक नहीं सकते, कतई नहीं रोक सकते। सर्वशक्तिमान ईश्वर भी नहीं रोक सकता। हर जीवात्मा का अपना भविष्य निश्चित है। जिसके पास 'केवलज्ञान' होता है यानी जो सर्वज्ञ होते हैं, वे हर जीवात्मा का भविष्य जान सकते हैं, देख सकते हैं। भविष्य निश्चित हो तभी देखा जा सकता है, तभी जाना जा सकता है। अपने पास केवलज्ञान नहीं होने की वजह से ही भविष्य के विषय में चिन्ता करते रहते हैं। आत्मा के अविकारी स्वरूप के बारे में सोचो :
इतनी पर-चिंता नहीं करनी चाहिए कि हम अपना ही आत्मचिंतन भूल जायें! हम अपनी ही आत्मा को भूल जायँ! छोड़ दो परचिंता। अपनी आत्मा का अविकारी स्वरूप समझो। परचिंता से मुक्त बनोगे तभी इस प्रकार का आत्मचिंतन, आत्मध्यान कर सकोगे, अन्यथा मन उस पर-व्यक्ति में चला जाएगा।
आत्मा के दो स्वरूप हैं : विकारी और अविकारी। अज्ञान, मोह, राग-द्वेष और शरीर वगैरह विकारों से व्याप्त जीवात्मा विकारी है। 'मैं रूपवान हूँ, मैं धनवान हूँ, मैं पिता हूँ, पत्नी हूँ, पुत्र हूँ, बलवान हूँ, बुद्धिमान हूँ...' वगैरह
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