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प्रवचन-१९
२४९ से मलिन था उनका हृदय! जैन शासन में ऐसी साधना का कोई मूल्य नहीं है। ऐसी तपश्चर्या को मुक्ति का कारण नहीं माना है। दूसरों के गुणों के अनुरागी बने बिना, दूसरों के सुख देखकर प्रमोद किये बिना घोर तपश्चर्या भी निष्फल जाती है | घोर तपस्वियों का भी पतन होता है। सिंहगुफावासी मुनि का हृदय स्थूलभद्रजी के प्रति ईर्ष्या से जलने लगा। ईर्ष्या की आग में उनका सुकृत भी जल गया! उनकी शान्ति भी जल गई। उनके मन में तो एक ही बात थी-मैं आगामी वर्षाकाल उस नृत्यांगना के आवास में व्यतीत करूँगा...। फिर गुरुदेव मेरी भी वैसी प्रशंसा करते हैं या नहीं, देखेंगा। नृत्यांगना के आवास में वर्षाकाल व्यतीत करना कौन-सी बड़ी साधना है? मैं भी स्थूलभद्र से कोई कम नहीं हूँ।' __ प्रशंसा, अपनी प्रशंसा सुनना, एक बड़ा सुख है। अपनी प्रशंसा दूसरों की प्रशंसा ज्यादा हो, ईर्ष्यालु मनुष्य को जरा भी पसन्द नहीं आता। वह तो यह चाहता है कि 'मेरी ही प्रशंसा हो! सबसे ज्यादा मेरी प्रशंसा हो!' उसको दूसरों की निन्दा सुनने में मजा आता है! उसको दूसरे के दुःख जान कर मजा आता है! ईर्ष्यालु मनुष्य सुनेगा कि 'फलां व्यक्ति खूब दुःखी हो रहा है', तो वह खुश होगा। दूसरों के सुख से उसको हमेशा ज्यादा सुख चाहिए! अपने आपको बड़ा मानना खतरनाक हो सकता है :
सिंहगुफावासी मुनि को प्रशंसा का सुख कम पड़ गया। स्थूलभद्र से भी उनको ज्यादा प्रशंसा चाहिए थी! और जब वर्षाकाल निकट आया, उन्होंने जाकर गुरुदेव से कहा :
'मैं यह वर्षाकाल कोशा नृत्यांगना के वहाँ व्यतीत करना चाहता हूँ।' गुरुदेव ने बहुत कोमल शब्दों में कहा : 'वत्स! कोशा के वहाँ वर्षाकाल व्यतीत करना और निर्विकार रहना, एक स्थूलभद्र के लिए ही संभव है, तेरे लिए नहीं
और मेरे लिए भी नहीं!' ___ परन्तु सिंहगुफावासी मुनि गुरुदेव की बातें कैसे मान लें? उनको तो जाना ही था कोशा के वहाँ । उन्होंने गुरुदेव की बात नहीं मानी। गुरुदेव ने उनको काफी समझाया, परन्तु वे नहीं माने और कोशा के निवास पहुँच ही गए। ईर्ष्या से जीव पतित बनता है :
ईर्ष्या ने गुर्वाज्ञा का अनादर करवाया । गुरुदेव की सच्ची बात नहीं मानने दी। 'सोचो, दिमाग से सोचो। ईर्ष्या कितना भयंकर दोष है। ईर्ष्या थी
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