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प्रवचन-२२
२९३ तो भी गुस्सा करते हैं! परन्तु वास्तव में जो गुरु होते हैं वे ऐसे अविनीत और अभिमानी शिष्यों के प्रति गुस्सा नहीं करते, उपेक्षा-भावना रखते हैं। उनके मन में गुस्सा आता ही नहीं। उपेक्षा-भावना से भावित मनुष्य में अपराधी के प्रति भी गुस्सा नहीं आएगा | बुरे से बुरे काम करनेवालों के प्रति भी गुस्सा नहीं आएगा।
सभा में से : दूसरे लोगों के प्रति गुस्सा नहीं आता है, परन्तु जिनको हम अपना मानते हैं और वे जब नहीं सुधरते हैं, गलतियाँ करते रहते हैं, तब उनके प्रति गुस्सा आ ही जाता है! 'मैं' और 'मेरा' गुस्से की जड़ है : __ महाराजश्री : एकत्व भावना और अन्यत्व भावना का पुनः पुनः अभ्यास करके अपनत्व की वासना को निर्मूल कर दो। 'यह मेरा लड़का है और मेरा कहा नहीं मानता है?' यह गुस्सा लड़के की बुराई के प्रति नहीं, परन्तु आपका स्वमानभंग होने से पैदा हुआ! बात समझे न? ठीक प्रकार से समझ लो । जब आपकी पत्नी, आपका पुत्र या पुत्री या नौकर-चाकर आपकी अच्छी भी आज्ञा नहीं मानते, आपका कहा नहीं करते, बुरा काम नहीं छोड़ते हैं तब आपके मन में क्या होता है? गुस्सा क्यों आता है? 'वह बुरा काम करके पापकर्म बाँधेगा
और पापकर्मों के उदय से दुःखी होगा... इस विचार से गुस्सा आता है? नहीं न? 'यह मेरी पत्नी है, उसको मेरा कहा मानना ही चाहिए! यह मेरा लड़का है, मैं इसका पिता हूँ, मेरा कहा उसको मानना ही चाहिए, यह मेरा नौकर है, मैं उसका बॉस हूँ, मेरी बात उसको तो माननी ही चाहिए...' ऐसी अहंकारजन्य मान्यताएँ मन में भरी पड़ी हैं। इसलिए रोष होता है। इसलिए धिक्कारतिरस्कार के दुर्भाव पैदा होते हैं। 'अहं' और 'मम' यानी 'मैं' और 'मेरा' का भाव हृदय से निकालना अत्यंत आवश्यक है।
सभा में से : मैं और मेरा ये भाव तो आत्मसात हो गये हैं। इनको कैसे मिटाया जाय? इन भावों को मिटाने से जीवन का आनन्द क्या रहेगा?
महाराजश्री : आपकी बात सही है। मैं और मेरा, अहंकार और ममकार के भाव इसी जीवन के नहीं है, अनन्त जन्मों से आत्मा के साथ चले आ रहे हैं। केवलज्ञानी महापुरुषों ने इसी को महामोह कहा और इस महामोह को संसारपरिभ्रमण का कारण बताया। जिस मनुष्य को संसार-परिभ्रमण मिटाना है उसको महामोह मिटाना ही पड़ेगा। महामोह मिटाया जा सकता है। मिटाने का पुरुषार्थ करना पड़ेगा। महामोह से जीवन में कतई आनन्द नहीं है।
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