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प्रवचन-२२
__२९८ 'शान्तसुधारस' ग्रन्थ में ग्रन्थकार उपाध्यायजी ने कहा है :
'निष्फलया किं परजनतप्त्या कुरुषे निजसुखलोपं रे।' 'निष्फल परजनचिंता करके तू अपने सुख का नाश क्यों करता है?' परन्तु अपने लोगों की आदत हो गई है परचिंता करने की! परचिंता करते रहना, राग-द्वेष करते रहना, पापकर्म बाँधते रहना और संसार की दुर्गतियों में भटकते रहना! अब भी भटकना हो संसार में तो अपनी आदत बनाये रखो! नहीं भटकना हो तो आदत को मिटाने का भरसक प्रयत्न करो। करोगे क्या? होती है आत्मचिंता? नहीं, परचिंता में इतने गहरे फँस गए हो, कि आत्मचिंता का अवकाश ही नहीं रहा! निष्फल परचिंता करना छोड़ो। सफल आत्मचिंता करना शुरू करो।
सभा में से : परचिंता की आदत कैसे छोड़ें?
महाराजश्री : परचिंता बुरी लगती है क्या? परचिंता की भयानकता समझ रहे हो क्या? यदि परचिंता त्याज्य लगती है तो उसका त्याग करने की बात है। परचिंता का भी एक रस है। कुछ लोगों को तो पराई चिंता किये बिना चैन नहीं पड़ता। बेचारे वे अज्ञानी और मोहान्ध होते हैं। उनको परचिंता करने के नुकसान भी कौन बताए? निष्फल परचिंता करना छोड़ो। अविनीत को उपदेश नहीं देना : व्यवहार नहीं रखना : ___ जो आपकी हितकारी-कल्याणकारी और सुखकारी बात भी नहीं मानते हों, उसको कुछ मत कहो । आपके हृदय में उसके प्रति करुणा बनाये रखो। 'इस बेचारे का क्या होगा? ऐसे दुष्कर्मों से इसका कैसा घोर पतन होगा? परमात्मा की परमकृपा से इसको सद्बुद्धि प्राप्त हो!' करुणासभर चिंतन करने का, परन्तु उस व्यक्ति को कुछ भी कहने का नहीं। यह है 'करुणासारा माध्यस्थ्यभावना।' कुछ भी व्यवहार उसके साथ करने का नहीं। ___ मैंने आपको पहले ही कहा है कि यह माध्यस्थ्य-भावना विशेष करके जो बड़े हैं, जिन पर किसी की जिम्मेदारी है, उनके लिए है। जो बड़े हैं, जो जिम्मेदार व्यक्ति हैं वे यदि इस उपेक्षा-भावना को आत्मसात् कर लें और अपनी जिम्मेदारी को निभाने का प्रयत्न करे तो उनका मन अशान्ति की आग में सुलगेगा नहीं। दूसरों के प्रति घोर तिरस्कार होगा नहीं।
जिन बड़े लोगों के हृदय में उपेक्षा-भावना नहीं होती है, ऐसे बड़े लोगों को
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