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प्रवचन-२०
२७२ साध्वीजी का सुयोग्य प्रत्युत्तर :
साध्वीजी याकिनीमहत्तरा ने ताड़ लिया था कि 'ये महानुभाव हरिभद्र पुरोहित ही होने चाहिए।' साध्वीजी बड़ी विचक्षण थीं। उन्होंने कहा : 'हे महानुभाव! हमारे जिनशासन में सूत्र का अर्थ बताने का अधिकार साधुपुरुषों का है, साध्वीजी अर्थज्ञान नहीं दे सकतीं, इसलिए आपको यदि अर्थज्ञान चाहिए तो आप हमारे गुरुदेवश्री के पास जाइए।' बड़ी करुणा और वात्सल्य से साध्वीजी ने हरिभद्र पुरोहित को कहा। 'कहाँ बिराजते हैं आपके गुरुदेव?' हरिभद्र ने पूछा! 'जिनमंदिर के पासवाले उपाश्रय में!' साध्वीजी ने प्रत्युत्तर दिया। साध्वीजी की ज्ञानदृष्टि :
साध्वीजी कितनी विचक्षण होंगी? उन्होंने स्वयं उस श्लोक का अर्थ नहीं बताया! क्योंकि वह जानती थीं कि 'यह व्यक्ति मामूली नहीं है, कभी जैनमंदिर या जैनउपाश्रय में पैर नहीं रखनेवाला यह पुरोहित आज संयोगवश आ गया है तो आचार्यदेव से इसकी मुलाकात करा देनी चाहिए । आचार्यदेव द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से ज्ञाता होते हैं। यदि मैं श्लोक का अर्थ बता दूँगी तो यह विद्वान यहीं से ही लौट जाएगा, गुरुदेव के पास नहीं जाएगा। पाने आया है मात्र एक श्लोक का अर्थ, लेकर जाना चाहिए आत्मकल्याण की भव्य प्रेरणा! जैनशासन के अपूर्व तत्त्वज्ञान की सुवास!' साध्वीजी का हृदय कितना करुणासभर होगा? दूसरी आत्माओं के प्रति कैसा अपूर्व वात्सल्य है! जानती थी साध्वीजी को इसी हरिभद्र पुरोहित ने जैनमंदिर में जाकर, परमात्मा जिनेश्वरदेव की मूर्ति का उपहास किया था एक दिन । फिर भी उसके प्रति साध्वीजी को गुस्सा नहीं आया, 'उनको भी सद्धर्म की प्राप्ति हो!' ऐसी भावकरुणा आई। अपराधी के प्रति भी रोष नहीं परन्तु करुणा! यह संतहृदय की विशेषता होती है। अपराधी के प्रति रोष और तिरस्कार तो संसार में सभी करते हैं। संत की दृष्टि ही ज्ञानदृष्टि होती है।
हरिभद्र पुरोहित की सूक्ष्म दृष्टि ने साध्वीजी के उपाश्रय का शान्त, प्रशान्त और सुवासित वातावरण जान लिया। शिस्त और अनुशासन से प्रभावित हुए। उन्होंने साध्वीजी को पुनः नमस्कार किया और विनय से उन्होंने बिदा ली। साध्वीजी ने पुनः 'धर्मलाभ' का आशीर्वाद दिया।
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