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प्रवचन-२१ विश्वासपात्र एवं आज्ञांकित शिष्यों को ही रहस्य बताते हैं। अतः मुझे उनका शिष्य बन जाना चाहिए। यदि मैं शिष्य बन जाऊँगा तो जैनधर्म की भीतरी स्थिति का भी अच्छा अध्ययन हो जाएगा और फिर मैं उसी जैनाचार्य से वाद करूँगा, उनको पराजित करूँगा, जैनधर्म को भारत में से निकाल दूंगा!'
गोविन्दाचार्य ने दीक्षा ली। गुरुदेव ने गोविन्दाचार्य को जैनधर्म के सिद्धान्तों का ज्ञान देना प्रारंभ किया। गोविन्दाचार्य भी काफी विनय और नम्रता से ज्ञानार्जन करने लगे। बनावट करनेवाले तो ज्यादा विनय करेंगे, नम्रता भी ज्यादा रखेंगे! पर ज्यों-ज्यों वे अध्ययन करते गये, जैनधर्म के 'अनेकान्तवाद' जैसे सिद्धान्तों का ज्यों-ज्यों तलस्पर्शी अध्ययन करते गये त्यों-त्यों जैनधर्म के प्रति द्वेष जो था, दूर होता गया। आचारमार्ग में अपरिग्रह का, सिद्धान्त और विचारों में अनेकान्तवाद का सिद्धान्त...अपरिग्रह और अनेकान्तवाद, जैनधर्म के अकाट्य सिद्धान्त हैं | आये थे दोष देखने, परन्तु दिखाई दिये गुण ही गुण! साधुजीवन की उत्तम जीवनचर्या से वे काफी प्रभावित हुए। उनके हृदय में जैनधर्म के प्रति आदरभाव बहुत बढ़ गया । दृष्टि बदल गई! गुरुदेव के चरणों में गिर कर क्षमा माँगी और कहा : 'गुरुदेव, पहले तो मैंने साधु होने का दंभ ही किया था, जैनधर्म के प्रति द्वेष होने से, जैनधर्म के सिद्धान्तों का खंडन कर, जैनाचार्यों को पराजित करने की भावना थी। ___ जैनधर्म के सिद्धान्त मुझे इसलिए जानने थे कि मैं उन सिद्धान्तों का वेदान्त के सिद्धान्तों से अच्छी तरह खंडन कर सकूँ। इसलिए मैं साधु बना और अध्ययन किया। परन्तु आपकी परमकृपा से मुझे जैनधर्म के सिद्धान्त ही परिपूर्ण और अकाट्य लगे। ऐसे सिद्धान्तों का खंडन हो ही नहीं सकता। ऐसा परिपूर्ण जैनदर्शन पाकर अब मैं खो देना नहीं चाहता हूँ। आप कृपा कर मुझे प्रायश्चित्त दीजिए और पुनः मुझे चारित्र्यधर्म प्रदान करें। सचमुच जैनधर्मजैनदर्शन परिपूर्ण है, इसलिए सर्वश्रेष्ठ है।' ___ परिवर्तन आ गया दृष्टि में। दोषदृष्टि चली गई, गुणदृष्टि खुल गई। ऐसा किसी के जीवन में सहजभाव से बन जाता है, किसी को अभ्यास करना पड़ता है, यानी प्रयत्न से दोषदृष्टि मिटानी पड़ती हैं। दोषदृष्टि मिटाये बिना दोषदर्शन की आदत से मुक्त नहीं बन सकोगे। प्रमोद-भावना के लिए गुणदृष्टि चाहिए ही। गुणदृष्टि से दूसरों के गुण दिखते हैं और तभी प्रमोद-भावना जाग्रत होती है। दूसरों का सुख भी गुणदृष्टि से ही सहन हो सकता है, यानी ईर्ष्या नहीं होती है।
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