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प्रवचन- २१
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'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में वे ३५ गुण बताये गये हैं और अब तीन-चार दिन के बाद उन ३५ गुणों का ही वर्णन शुरू करना है । चातुर्मास - वर्षावास में ३५ गुणों का विवेचन पूरा हो जाय तो अच्छा है ! हालाँकि 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ तो बड़ा है। उसमें मार्गानुसारिता से लगाकर मोक्षप्राप्ति तक का क्रमिक विकास बताया गया है। क्रमिक आत्मविकास जिनकी साधना है, उनके लिए 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है। दोषदर्शन की बुरी आदत छोड़ दो :
अपनी बात तो वह थी कि मिथ्यादृष्टि जीवों में जो मार्गानुसारी जीव हैं और उनमें जो सत्य-संतोष - विनय इत्यादि गुण हैं, उन गुणों की हार्दिक अनुमोदना करनी चाहिए। मैं आपको कई बार कहता हूँ कि संसार में प्रत्येक जीवात्मा में कोई न कोई गुण होता ही है । गुण के बिना चैतन्य का होना संभव नहीं । गुण देखने की अपने पास दृष्टि चाहिए । गुणदृष्टि से ही गुण दिखते हैं। गुण होने पर भी, गुणदृष्टि नहीं होती है, तो गुण नहीं दिखेंगे। दूसरों के दोष ही देखने की आदतवालों को दूसरों के गुण दिखे ही नहीं। ऐसे जीवों से कैसे अपेक्षा रखें कि वे गुण देखें । आदत को छोड़ना सरल बात नहीं है। बीड़ी की आदत जैसी मामूली आदत छोड़ना भी मुश्किल लगता है तो फिर दोषदर्शन जैसी गंभीर और पुरानी आदत को छोड़ना कितना मुश्किल होगा? हाँ, कोई महान भाग्योदय होनेवाला हो, कोई दिव्य-कृपा हो जाय और दोषदर्शन की लत छूट जाय वह दूसरी बात है । जैसे हरिभद्र पुरोहित ! जैनधर्म और जैन धर्मस्थानों में वे दोष ही दोष देखते थे, परन्तु याकिनीमहत्तरा साध्वीजी के परिचय से परिवर्तन आ गया। परमात्मा की मूर्ति का उपहास करनेवाले वे, परमात्मा का स्तवन करनेवाले बन गये ।
एक रोमांचकारी कहानी गोविन्दाचार्य की :
ऐसी ही एक दूसरी घटना है गोविन्दाचार्य की । ब्राह्मण पंडित थे । जैनधर्म के प्रति उनके हृदय में घोर घृणा थी । जैनधर्म के सिद्धान्तों का राजसभा में खंडन कर पराजित करने की तीव्र इच्छा थी । जिसके साथ वाद-विवाद करना हो, उसके सिद्धान्तों का भी समुचित ज्ञान होना चाहिए। गोविन्दाचार्य ने वैसे जैनधर्म के सिद्धान्तों का ज्ञान पाने का प्रयत्न किया, परन्तु जैनाचार्य के अलावा प्रामाणिक सिद्धान्तज्ञान वे पायें कैसे ? गोविन्दाचार्य को चिन्ता हुई । वे जानते थे कि 'जैनाचार्य' सभी को अपने सिद्धान्तों का रहस्य नहीं बताते हैं। अपने
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