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प्रवचन- २०
२७०
कर रखते थे। वे कहते थे : 'मेरी विद्वत्ता इतनी ज्यादा है कि पेट फूट न जाय, इसलिए पेट पर पट्टी बांधकर रखता हूँ ।'
हरिभद्र पुरोहित अपने हाथ में एक छोटी-सी सीढ़ी रखते थे! वे कहते थे : 'कोई विद्वान वादीपुरुष मेरे डर से आकाश में ऊपर चढ़ जाय तो मैं इस सीढ़ी पर चढ़ कर उसे पकडूंगा और उनसे वाद-विवाद करूँगा!' वे अपने पास एक जाल रखते थे छोटी-सी ! वे कहते थे : 'यदि कोई विद्वान मेरे भय से कोई सरोवर में या नदी में छिप जाय तो मैं यह जाल डालकर उसको पकड़ लूँगा और उससे वादविवाद कर पराजित करूँगा । 'मैं विजयी बनूँगा, इसका उनको पूर्ण भरोसा था। विद्वत्ता उनकी ठोस थी। चित्तौड़ की राजसभा में आनेवाला कोई भी विद्वान वादी विजयी बन कर नहीं लौट सकता था । हर विद्वान को हरिभद्र पुरोहित बुरी तरह पराजित कर देते थे ।
एक दिन प्रातःकाल वे राजमार्ग पर से गुजर रहे थे, रास्ते पर जैन उपाश्रय था, उपाश्रय में साध्वीजी प्रातःकालीन स्वाध्याय कर रही थीं। एक साध्वीजी शुद्ध और स्पष्ट शब्दों में स्वाध्याय कर रही थीं, उनके शब्द मार्ग से गुजरनेवालों को भी सुनाई देते थे । साध्वीजी एक प्राकृत भाषा का श्लोक याद कर रही थी :
'चक्कीदुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव द चक्की केसी य चक्की य ।।'
(आवश्यक निर्युक्ति)
हरिभद्र पुरोहित ने यह श्लोक सुना । वे खड़े रह गये । श्लोक का अर्थ करने लगे, परन्तु अर्थ समझ में नहीं आया । वे पुनः पुनः अर्थ समझने का प्रयत्न करने लगे, परन्तु असफल रहे। उनके मन में एक प्रतिज्ञा थी : 'यदि मैं कोई शास्त्र, कोई शास्त्र की बात नहीं समझ सकूँगा और कोई मुझे समझा दे तो मैं उनका शिष्य बन जाऊँ । वह शास्त्र समझाने के लिए, समझानेवाला जो शर्त रखे, वह शर्त मुझे स्वीकार्य होगी ।' भले यह प्रतिज्ञा उन्होंने दुनिया के सामने जाहिर नहीं की होगी, परन्तु मानसिक प्रतिज्ञा के पालन में भी वे सुदृढ़ थे। यह उनकी मौलिक योग्यता थी । मानसिक संकल्प का पालन करने की दृढ़ता, मामूली बात नहीं है । वाचिक संकल्प को भी लोग भंग कर देते हैं, कायिक संकल्प का भी पालन नहीं करते हैं, तो मानसिक संकल्प, मानसिक प्रतिज्ञा का पालन करने की बात ही कहाँ ?
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