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प्रवचन-२१
२८१ मैं यह बात समझाना चाहता हूँ कि आज जिसके पास भौतिक सुख हैं, वैषयिक सुख हैं, वह पूर्वजन्मों का धर्मात्मा है। पूर्वजन्म में जिसने दान, शील, तप इत्यादि धर्म-आराधना की हुई होती है, वह वर्तमान जीवन में अनेक प्रकार की सुख-सामग्री का स्वामी बनता है। ऐसे जीवों के प्रति ईर्ष्या नहीं होनी चाहिए। 'इसको इतना सुख मिला और मुझे नहीं? मुझसे से ज्यादा सुख इसको क्यों मिला? इससे ज्यादा सुख मुझे मिलना चाहिए | अथवा इसके पास सुख होना ही नहीं चाहिए, यह तो दुःखी ही होना चाहिए।' ये सारे ईर्ष्या के रूप हैं। ईर्ष्याग्रस्त बच्चा : ___ मैने एक गाँव में एक ऐसा बच्चा देखा, मैं हैरान रह गया । होगा पाँच-सात साल का लड़का | परिवार सुखी-संपन्न । लड़के के प्रति माता-पिता को अपार स्नेह था। लड़का एक ही था, लड़कियाँ तीन थीं। तीनों बहनें भाई से प्यार करती थीं...परन्तु भाई तीनों बहनों की घोर ईर्ष्या करता था! यदि माता-पिता ने लड़कियों को कुछ अच्छा दिया, तो भाई का दिमाग चकरा जाता। 'बहनों को कुछ भी अच्छा नहीं मिलना चाहिए।' यह उसकी हठ थी। बहनें इतनी अच्छी थीं कि अपने भाई को खुश रखने के लिए कोई भी अच्छी वस्तु नहीं लेती थीं। अच्छे वस्त्र नहीं, अच्छे खिलौने नहीं। अच्छा खाना भी नहीं। मातापिता लड़के को कितना भी समझाएँ, समझे ही नहीं। पिता की मृत्यु हो गई, तीनों बहनें अपने-अपने ससुराल चली गईं, अब भाई का पतन होना प्रारंभ हुआ। माता का कहा माने नहीं, उद्धताई और अविनय, ईर्ष्या और द्वेष...अनेक दोषों से भर गया। जुआ और चोरी के पाप भी करने लगा। जेल में गया । स्नेही-स्वजनों ने बड़ी मुश्किल से छुड़वाया।
छोटी उम्र से ईर्ष्या का दोष मनुष्य के जीवन में प्रविष्ट हो जाता है, तब मनुष्य का जीवन नष्ट-भ्रष्ट होने में देरी नहीं लगती। आगे चलकर वह बालक साधु-जीवन में भी जाता है, तो भी ईर्ष्या का दोष नहीं जाता है। साधु-जीवन में भी दूसरे गुणवान साधुओं की ईर्ष्या करेगा ही। दूसरे कीर्तिप्राप्त, प्रतिष्ठाप्राप्त साधुओं के दोष देखता रहेगा और ईर्ष्या से जलता रहेगा! ईर्ष्या में से छल, प्रपंच वगैरह अनेक दोष पैदा होते हैं! क्लेश, अशान्ति और संताप से उसका हृदय सदैव जलता रहता है। मैंने ऐसे लोगों के जीवन देखे हैं, वे व्यर्थ में ही घोर अशान्ति के शिकार बन गये हैं।
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