Book Title: Dhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 281
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२० २७३ हरिभद्र पुरोहित के हृदय में साध्वीजी के प्रति प्रमोदभाव जाग्रत हो गया था। इसलिए साध्वीजी की बात भी उनको अँच गई थी। वे वहाँ से सीधे जैनमंदिर पहुंचे। क्योंकि आचार्यदेव जैनमंदिर के पास ही बिराजते थे। रास्ता भी जैनमंदिर में से जाता था। आज हरिभद्र पुरोहित के दिल और दिमाग पर साध्वी, साध्वी की बातें और उपाश्रय का प्रशान्त-निर्मल वातावरण छाया हुआ था। जैनधर्म की आचार-मर्यादा के प्रति उनके हृदय में सद्भाव जाग्रत हुआ था, इसलिए मंदिर में जाकर उसने परमात्मा की मूर्ति की खूब प्रशंसा की। __यह वही मंदिर था कि हाथी के भय से हरिभद्र इस मंदिर में आश्रय लेने आ गये थे और परमात्मा की मूर्ति को देखकर उपहास किया था। उस समय उनके हृदय में जैनधर्म के प्रति विद्वेष था । आज विद्वेष नहीं था, सद्भाव था! प्रमोदभाव था! हृदय के भाव मनुष्य के आचरण में प्रतिबिंबित होते हैं। हाँ, मायावी और कपटी मनुष्यों की बात दूसरी होती है। वे लोग अपने हृदयगत भावों को आचरण में दिखने नहीं देते। सरल और निष्कपट मनुष्य के भाव उसके आचरण में प्रतिबिंबित होंगे ही। जिस व्यक्ति के प्रति, जिस धर्म के प्रति, जिस स्थान के प्रति प्रमोदभाव यानी प्रीति का भाव जाग्रत होता है, उस व्यक्तिका धर्म और स्थान के प्रति अच्छा आचरण ही होता है। अच्छा ही व्यवहार बनता है। हृदय में प्रमोदभाव आ जाना चाहिए। प्रमोद के स्थान पर यदि ईर्ष्या का, द्वेष का या तिरस्कार का भाव आया तो व्यवहार बिगड़ेगा ही। इसलिए कहता हूँ कि हृदय को, गुणवानों की प्रति एवं पुण्यशालियों के प्रति प्रमोदभाव से भरपूर रखिए। आप जहाँ जहाँ भी गुणदर्शन करोगे, वहाँ वहाँ प्रेम होगा ही। गुणदर्शन से प्रेम होता है, दोषदर्शन से द्वेष होता है। जहाँ प्रेम होता है वहाँ अपना चित्त आनन्द का अनुभव करता है, जहाँ द्वेष होता है वहाँ अपना मन संताप अनुभव करता है। हरिभद्र पुरोहित आचार्य भगवंत के पास : __ आज हरिभद्र पुरोहित ने परमात्मा जिनेश्वरदेव की मूर्ति में सच्ची वीतरागता पाई! उनकी आँखें आनंदाश्रु से भर गई। उनकी स्तुति का श्लोक आचार्यदेव ने उपाश्रय में बैठे-बैठे सुन लिया था। हरिभद्र पुरोहित की आवाज परिचित थी! आचार्यश्री समझ गये कि 'हरिभद्र पुरोहित की यह आवाज है।' आचार्यदेव ने अव्यक्त आनन्द का अनुभव किया। उनकी दक्षिण चक्षु स्फुरायमान होने लगी। अनेक शुभ संकेत होने लगे। For Private And Personal Use Only

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