Book Title: Dhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 267
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-१९ २५९ करते रहो । हाँ, एक सावधानी रखना, दूसरों के आगे प्रकट में गुणानुवाद और प्रच्छन्न दोषानुवाद, ऐसा मत करना । मैंने एक साधु को भी देखा है वे प्रत्यक्ष में तो गुणानुवाद करते हैं परन्तु प्रच्छन्न रूप में दोषानुवाद ही करते रहते हैं। इस बुरी आदत से उनके मित्र नहीं रहे | जो मित्र थे वे भी उनसे दूर हो गये। उनके निकट के कुछ साथी भी उनको छोड़ गये। गुणानुवाद करने से ईर्ष्या का दुर्गुण स्वतः दूर होता जाएगा। परन्तु याद रखना, गुणदर्शन के बिना, गुण-प्रेम के बिना गुणानुवाद नहीं होगा। गुणप्रेम गुणदृष्टि के बिना नहीं हो सकेगा। तो, प्रमोदभावना का मूल रहा है गुणदृष्टि में। गुणदृष्टि के बिना 'प्रमोदभाव' हृदय में जाग्रत नहीं हो सकता। गुणदृष्टि बनाये रखो। उसको बंद मत होने दो। गुणदृष्टि का अन्धापन चर्मदृष्टि के अन्धेपन से भी बहुत ज्यादा हानिकर्ता है। मैंने कई ऐसे मनुष्य देख हैं कि जो धर्मक्रियाएँ तो करते रहते हैं, परन्तु कभी वे किसी गुणवान के गुण नहीं गाते। कभी-कभी तो वे बोलते हैं : 'आजकल संसार में कोई गुणवान मनुष्य रहा ही नहीं है।' हाँ, वे अपने आपको गुणवान मानते हैं! दूसरों को नहीं! दोषदर्शन से उनमें इतना ज्यादा जीवद्वेष बढ़ गया है कि उनकी कौन-सी गति होगी, भगवान जाने! जीवद्वेषी और जड़प्रेमी जीवों की अधोगति ही होती है। वर्तमान जीवन में भी उनको शान्ति, समता, प्रसन्नता नहीं मिलती है। धर्मआराधना करनेवालों का हृदय मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य-इन चार भावनाओं से भरपूर होना चाहिए, यह बात ग्रन्थकार आचार्यदेव बताते हैं। चार भावनाओं को अपने जीवन में प्रमुख स्थान देना अनिवार्य है। चार भावनाओं में से मैत्री और करुणा का विवेचन पूरा करके हम प्रमोदभावना पर चिन्तन कर रहे हैं। प्रमोदभावना के जो प्रमुख विषय हैं उनका विवेचन और प्रमोदभावना के प्रकारों का वर्णन अब करना है, परन्तु, आज नहीं। आज, बस इतना ही। For Private And Personal Use Only

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