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प्रवचन-२०
२६० किसी के गुणों को याद करके दिल बहुत उछलने लगे, भीतर में प्रसन्नता का पारावार उभरने लगे, हृदय भावविभोर बनकर नाच उठे... उसे 'प्रमोदभाव' कहते हैं। प्रशंसा भी दिल से होनी चाहिए। गुणों के माध्यम से हुआ प्रेम दीर्घजीवी होता है। रुप और । रुपयों की खातिर होनेवाला प्रेम अल्पजीवी होता है। ऐसा प्रेम हवा बनकर पलक झपकते उड़ जाता है।
गुणदर्शन से प्रेम होता है, दोषदर्शन से द्वेष! . जहाँ प्रेम होता है वहाँ चित्त आनंद की अनुभूति करता है,
जहाँ द्वेष होता है वहाँ मन संताप से सुलगता रहता है। .हरिभद्रसूरिजी जैसे प्रकांड प्रज्ञावान आचार्यभगवंत भी अपनी
धर्मदाता साध्वीजी याकिनीमहत्तरा को हर ग्रंथरचना के समय : याद करते हैं... वह भी अपने आपको उनका 'पुत्र' कहकर! -
प्रवचन : २०
महान ज्ञानयोगी आचार्यश्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में 'धर्मतत्त्व' की परिभाषा दी है। दुनिया में अनेक लोग धर्म... धर्म तो बोलते हैं, परन्तु वास्तविक धर्मतत्त्व को ज्यादातर लोग नहीं जानते। दुनिया को धर्मतत्त्व जानने की परवाह भी कहाँ है? सकल संसार में सुख-शान्ति का मूल स्रोत ही धर्म है, फिर भी संसार ने हमेशा धर्म के विषय में बेपरवाही ही बरती है। संसार में हमेशा पाप के ही ढोल पीटते रहते हैं। परिणाम जानते हो? संसार में जो दुःख, त्रास, वेदनाएँ और विडंबनाएँ दिखती हैं, वे सब पापों का उत्पादन हैं। धर्मतत्त्व जब जीवंत बनता है तब...:
मेरा यह कहना है कि आप सर्वप्रथम धर्मतत्त्व को सही रूप में समझ लो। धर्म का आचरण करना न करना, आपके विवेक पर छोड़ देता हूँ| आप पहले समझो, यदि धर्मतत्त्व पर प्रेम हो गया सुनते-सुनते या पढ़ते-पढ़ते, तो एक
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