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प्रवचन-१९ चित्त के भाव भी तीन तरह के होते हैं :
आप लोग क्या मुनि-जनों को परिपूर्ण समझते हो? परिपूर्ण बनने का वे प्रयत्न करते हैं, पुरुषार्थ करते हैं, परिपूर्ण नहीं हैं। मुनि के चित्तपरिणाम भी तीन प्रकार के होते हैं :
१. वर्धमान २. हीयमान ३. अवस्थित । प्रत्येक संसारी जीवात्मा की चित्तस्थिति ऐसी होती है। कभी अच्छे विचारों की धारा बहती रहे, कभी अच्छे विचार उतरते रहें और कभी अच्छे विचार स्थगित से... एक से बने रहें। वैसे ही बुरे विचारों में भी। बुरे विचार कभी बढ़ते रहते हैं, कभी घटते रहते हैं, तो कभी बुरे विचार एक सरीखे बने रहते हैं। मुनि का जीवन ऐसा होता है कि उनके मन में अच्छे विचार ज्यादा समय वर्धमान रह सकते हैं अथवा अच्छे विचार अवस्थित ज्यादा समय रहते हैं। परन्तु कभी मोहोदय हो जाता है तो अच्छे विचार चले जाते हैं और बुरे विचार हावी बन जाते हैं! उस समय यदि विवेकी पात्र सामने हो, ज्ञानी और समझदार पात्र सामने हो, तो मुनि के मोहोदय को शान्त कर सकता है। यदि पात्र अविवेकी, अज्ञानी और मोहग्रस्त मिल गया, तो काम तमाम हो जाएगा। सिंहगुफावासी मुनि का उतना पुण्योदय था कि उनके सामने कोशा जैसी विवेकी और ज्ञानी श्राविका थी । व्यवसाय से भले ही वह नृत्यांगना थी, परन्तु हृदय से एवं जीवनपद्धति से वह श्राविका थी। विषयोपभोग करने पर भी वह विषयोपभोग को उपादेय नहीं मानती थी। विषयोपभोग में उसकी आसक्ति नहीं थी। यदि ऐसा नहीं होता तो लाख रूपये का रत्नकम्बल ललचाने के लिए पर्याप्त था! लालच सचमुच बुरी बला है :
आजकल दो रूपये का सिनेमा की टिकट भी ललचा देता है। कई मध्यम एवं गरीब परिवारों की लड़कियाँ एवं महिलाएँ दो रूपये के सिनेमा के टिकट पर अपना शील बेच देती हैं | लाख रूपये का माल मिलने पर तो पूरी जिन्दगी भी बेच दें! पैसे का लालच दुनिया में बड़ा लालच है। अच्छे-अच्छे लोग भी पैसे के लालच में गिर जाते हैं। लाख रूपये का रत्नकम्बल कोशा को नहीं ललचा सका! नृत्यांगना थी न? वेश्या कहते हो न कोशा को? वेश्या ही होती तो लाख रूपये का रत्नकम्बल उसको ललचाता या नहीं? इतना ही नहीं, कोशा ने तो महान परोपकार किया! चंचलचित्त बने मुनि को स्थिरचित्त बना
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