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प्रवचन-१९
२५२ रहा है। अरे, त्यागमार्ग में भी जब ईर्ष्या का प्रवेश हो गया है, फिर संसार की बात क्या करूँ? गुरु शिष्य की और शिष्य गुरु की ईर्ष्या में जल रहा है! एक साधु दूसरे साधु की ईर्ष्या में तड़प रहा है। घोर विषमता छाई हुई है। ईर्ष्याभरे हृदय में 'धर्म' कैसे हो सकता है? अशुद्ध हृदय में धर्म नहीं रह सकता है।
दूसरे जीवों का भौतिक या आध्यात्मिक सुख देखकर ईर्ष्या मत करो। दूसरों के पास आपसे ज्यादा वैषियिक सुख हैं, आपसे ज्यादा आध्यात्मिक सुख है, आप उनके प्रति सद्भावना रखो, ईर्ष्या करने से यदि उनका सुख आपके पास आ जाता हो तो आप भले ईर्ष्या करें! दूसरों का सुख तो आपके पास आएगा नहीं बल्कि आपका आन्तर-बाह्य सुख चला जाएगा जरूर! सिंहगुफावासी चले नेपाल की ओर :
अपनी प्रशंसा से स्थूलभद्रजी की प्रशंसा ज्यादा हुई और सिंहगुफावासी मुनि ईर्ष्या से सुलगने लगे! गुरुदेव का अनादर कर वे वेश्या के घर गए और वहाँ से वर्षाकाल में विहार कर के नेपाल गए! कोशा का रूपदर्शन करने के बाद 'मैं मुनि हूँ और मैं यहाँ वर्षावास करने आया हूँ'... यह बात भूल गए! अब उनका मन कोशा-संग के लिए आतुर हो गया। कोशा के लिए रत्नकम्बल लेने नेपाल चले गए! साधुता से गिरने लगे। पतन की गहरी खाई की ओर तीव्र गति से आगे बढ़ने लगे।
नेपाल पहुँचे, राजा से रत्नकम्बल मिल गया। मुनि खुश-खुश हो गए। शीघ्र ही पाटलीपुत्र के लिए रवाना हो गए। रास्ते में तकलीफें बहुत पाई...। परन्तु आखिर पाटलीपुत्र पहुँच गए। नृत्यांगना के वहाँ पहुँचे । वेश्यासंग की प्रचुर वासना से अभिभूत मुनि, कोशा के सामने जाकर खड़े रहे और बोले : 'प्रिये, तेरे लिए नेपाल जाकर यह लाख रूपये के मूल्य का रत्नकम्बल ले आया हूँ।' इतना कहकर रत्नकम्बल कोशा को दे दिया। रत्नकम्बल को डाला गटर में :
कोशा ने भी रत्नकम्बल का मुनि से स्वीकार किया और बोली : 'आपने बहुत कष्ट उठाया' नहीं? वर्षाकाल में नेपाल जाकर आए। आपका मेरे प्रति कितना स्नेह है!' मुनि तो कोशा के एक-एक शब्द को अमृत का घुट मानकर खूब प्रेम से पी रहे हैं। सुख पाने की कल्पना ने उनको बेहोश कर डाला है। कामवासना ने उनके विवेक सौष्ठव का ध्वंस कर डाला है।
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