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प्रवचन- १९
२५०
स्थूलभद्र के प्रति, अनादर करवाया गुरुवचन का ! सिंह की गुफा के द्वार पर खड़ा रहना सरल है, वेश्या के घर में निर्विकार रहना सरल नहीं है।' यह बात सिंहगुफावासी मुनि नहीं मान सके । 'यदि स्थूलभद्र निर्विकार रह सकते हैं तो मैं क्यों न रह सकूँ? मैं स्थूलभद्र से कम हूँ क्या?'
ईर्ष्याभरपूर आदमी अपनी आत्मस्थिति का वास्तविक दर्शन नहीं कर सकता है। अपनी भूमिका नहीं समझ सकता है । अपनी शक्ति - सामर्थ्य का सही मूल्यांकन नहीं कर सकता है। ईर्ष्याग्रसित मनुष्य हमेशा अपने आपको बड़ा ऊँचा मानता है। दूसरों से अपने को महान मानता है । कोई ज्ञानीपुरुष उसको समझायें तो भी वह नहीं समझ सकता।
गुरुदेव ने तो अपनी आचार - मर्यादा के अनुसार कह दिया : 'जहा सुखं देवाणुप्पिया ! 'जैसे तुझे सुख हो वैसे कर सकता है!' साधु-जीवन की यह मर्यादा है। कोई अविनीत, उद्धत शिष्य गुरु की बात नहीं माने तो गुरु 'जहा सुखं...' कह दें। इससे गुरु का मन खिन्न नहीं होता है और व्याकुल नहीं बनता है । गुरु तो जानते हैं जीवों की वैभाविक अवस्था को! कर्मों के दुष्प्रभाव से ग्रसित मनुष्य कैसा गलत आचरण करता है, वह गुरुदेव भलीभांति जानते हैं ।
कोशा के द्वार पर :
सिंहगुफावासी मुनि पहुँच गए कोशा नृत्यांगना के निवासस्थान पर । मुनि ने द्वार पर पहुँचते ही 'धर्मलाभ !' शब्द का उच्चारण किया। घर में से कोशा ‘धर्मलाभ' शब्द सुनते ही अपने वस्त्र ठीक कर, बाहर आई। उसने संपूर्ण सादगी अपनाई थी। अब वह श्राविका बनी हुई थी । मुनिजीवन के प्रति उसके मन में आदरभाव था। उसने मस्तक नमाकर वन्दना की और पूछा : 'कहिए मुनिवर, मेरे यहाँ पधारने की कृपा किसलिए की ?'
मुनि तो कोशा का रूप और कोशा के शब्द से ही विचलित हो गए ! उन्होंने कभी कोशा का रूप देखा नहीं था । मगध की प्रसिद्ध नृत्यांगना का रूप असाधारण था। उसके शब्द भी वैसे माधुर्यप्रचुर थे । रूप और शब्द ने उस मुनि के सत्त्व को पल दो पल में पराजित कर दिया। वे तो टकटकी लगाकर कोशा की ओर देखते ही रह गए। चतुर कोशा मुनि के बदलते भावों को भाँप गई ! मुनि ने अपनी हिम्मत जुटाकर कहा : 'मुझे तेरे वहाँ वर्षावास व्यतीत करना है! कोशा ने समझ लिया कि 'ये महाराज स्थूलभद्रजी का अनुकरण करने आए हैं!'
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