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प्रवचन-१८ दोनों बच्चें दौड़ते बाहर आ गये! घर जल गया, बच्चे बच गये! पिता को असत्य बोलना पड़ा! बच्चों के प्राण बचाने के लिए पिता असत्य बोला। साइकिल लाया नहीं था, फिर भी कहा कि 'तुम्हारे लिए साइकिल लाया हूँ।' तो क्या असत्य बोलने का पाप लगा? नहीं, वहाँ असत्य पाप नहीं था। धर्म था! सत्य-असत्य साक्षेप धर्म है। एकान्ततः सत्य धर्म नहीं है, एकान्ततः असत्य पाप नहीं है। __वहाँ उस धर्मगुरु की दृष्टि थी उस युवक को चोरी के पाप से बचाने की। करुणादृष्टि थी। युवक को चोरी के पाप से बचा लिया । धर्मगुरु जानते थे कि 'चोरी करना पाप है, चोरी से इस युवक का पतन होगा... दु:खी हो जाएगा...।' चोरी के परिणाम स्वरूप आनेवाले दुःख का उनको ज्ञान था, इसलिए युवक पर गुस्सा नहीं आया, करुणा आई! ___ सभा में से : हमारे तो दो रूपये के स्लीपर भी कोई ले जाय और पकड़ा जाय तो बुरी तरह पीटते हैं उसको!
महाराजश्री : जीव से भी जड़ ज्यादा प्यारा है आपको! जड़ पदार्थों के लिए जीवात्मा को कष्ट देते आप हिचकिचाते नहीं! जब तक चैतन्य के प्रति प्रीति, स्नेह जाग्रत नहीं होता है, आत्मा में धर्म का स्पर्श भी नहीं होता है। दो रूपये की स्लीपर के लिए मनुष्य को मारनेवाला, एक रूपये के झाडू के लिए बकरी को डंडा मारनेवाला क्या धर्म की आराधना कर सकता है? धर्म करने की योग्यता रखता है, क्या? आपको सोचना चाहिए कि 'इसने स्लीपर की चोरी क्यों की? वह कितना गरीब होगा? उसको चोरी करने के लिए किसने प्रेरित किया? वह इस दूषण से कैसे मुक्त हो सकता है?' सोचा है कभी? करुणा हो तो सोचो न! करुणा ही नहीं है और चले हो धर्म करने? कहलाते हो बड़े धर्मात्मा! क्रूर हृदय में धर्म हो ही नहीं सकता है। अंब क्रूरता को मिटा दो और करुणा को जाग्रत करो। हृदय में से क्रूरता की मिट्टी खोद-खोदकर बाहर फेंक दो, करुणा स्वयंभू प्रकट होगी। __ ऐसा मत सोचना कि साधुपुरुष ही ऐसी करुणा कर सकते हैं! गृहस्थ भी ऐसी करुणा कर सकता है। गृहस्थधर्म करुणा से ही शोभायमान होता है। ऐसे अनेक सद्गृहस्थ हो गये भूतकाल में, जिनका हृदय करुणा से भरपूर था। दुःखी जीवों के प्रति अत्यंत करुणा धारण करते थे। वर्तमान में भी ऐसे सदगृहस्थ हैं, जो दया के सागर हैं।
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