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प्रवचन- १९
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आदमी को अपनी खुद को प्रशंसा सुनना ज्यादा अच्छा लगता है। स्वकेन्द्रित एवं अपने आपको औरों से अच्छा मानने- मनवानेवाला व्यक्ति हमेशा यही चाहता है : 'मेरो प्रशंसा हो। लोग सबसे ज्यादा मेरो तारीफ करें।'
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● दिमाग को जरा खुला रखकर थोड़ा सोचो तो सही : ईर्ष्या कितना भयंकर दोष है? ईर्ष्या का आवेग व्यक्ति को न तो गुरुवचन को इज्जत करने देता है और न ही विनय - विवेक को फुलवारी को खिला-खिला कर रख सकता है।
* प्रमोदभावना के पानी से ईर्ष्या को आग बुझ जाती है। रोजाना, प्रतिदिन प्रमोदभावना का अभ्यास करो, सुखो और गुणी जीवों को कभी भी ईर्ष्या मत करो। उनको बुराई मत करो।
'ईर्ष्या स्लो-पोइझन' बनकर तन-मन को खत्म कर देती है।
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परम करुणावंत महान श्रुतधर आचार्यश्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में 'धर्म' की वास्तविक परिभाषा की है। हम इस परिभाषा को लेकर धर्मतत्त्व का चिन्तन कर रहे हैं ।
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प्रत्येक धर्मानुष्ठाने मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य भावों से परिपूर्ण हृदय से होना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि धर्म का परिशुद्ध हृदय के साथ घनिष्ट सम्बन्ध है। हृदय परिशुद्ध नहीं है और मनुष्य कितनी भी धर्मक्रियाएँ करे, वे क्रियाएँ 'धर्म' नहीं हैं । इसलिए हृदय को परिशुद्ध करना अत्यन्त आवश्यक है ।
तत्त्वज्ञानी बन जाइए :
हृदय अनेक प्रकार के दोषों से मलिन है । जीवों के प्रति द्वेष, धिक्कार, मत्सर-ईर्ष्या और घृणा ... बड़े दोष हैं। गंभीर दोष हैं। जीवस्वरूप के अज्ञान में से और कर्मसिद्धान्त के अज्ञान से ये सारे दोष पैदा होते हैं। जीवों का स्वरूप जानते हो? आप स्वयं जीव हैं न? आप अपना स्वरूप जानते हो?