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प्रवचन-१८
२३८
शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूगतणाः ।
दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखीभवतु लोकः ।। एक श्लोक तो यह है। इसका अर्थ है : 'सारे जगत का कल्याण हो। सर्व जीव परहित करने में लगे रहो। जीवों के सब दोष नष्ट हों। सर्वत्र सभी जीव सुखी हों।' दूसरा श्लोक सुन लो :
'खामेमि सव्व जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ति में सव्वभूएसु वेरं मझं न केणई ।। इसका अर्थ भी समझ लो : | 'मैं सभी जीवों को क्षमा देता हूँ, सर्व जीव मुझे क्षमा करें, सभी जीवों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के प्रति मुझे वैर नहीं है।'
इन दो श्लोकों का सुबह, मध्याह्न और शाम को पाठ करो। अर्थचिन्तन करो। यदि अनुकूलता हो तो सारे परिवार के साथ पाठ करो। घर में सबको ये श्लोक याद करवा दो। ऐसा कुछ प्रयोगात्मक करो। रोजाना सुनते ही रहोगे और क्रियात्मक कुछ भी नहीं करोगे तो ठोस रूप से कुछ भी मिलनेवाला नहीं। हृदयशुद्धि का यह प्रयोग करते रहो | ज्यों-ज्यों आपका हृदय शुद्ध होता जायेगा, जीवमैत्री बढ़ती जायेगी त्यों-त्यों आपकी धर्मक्रियाएँ रसपूर्ण बनती जायेंगी, आपके सारे कर्तव्य विवेकपूर्ण बनेंगे।
सभा में से : दीन-दुःखी और रोगी के प्रति तो करुणा आती है, परन्तु जो हिंसा, चोरी आदि पाप करते हैं, उनके प्रति करुणा नहीं आती है, उनके प्रति तो गुस्सा आ ही जाता है! नफरत हो ही जाती है! __ महाराजश्री : दीन, गरीब, अनाथ, रोगी वगैरह के दुःख प्रत्यक्ष आपको दिखते हैं इसलिए आपका हृदय दया से-करुणा से भर जाता है। जो लोग हिंसा, असत्य, चोरी आदि पाप करते हैं, उनका दुःख प्रत्यक्ष नहीं दिखता है! दुःख के कारण प्रत्यक्ष हैं, दुःख परोक्ष होता है। यदि आप पाप के फल का विचार करें तो आपकी कल्पना में दुःख आ सकते हैं : 'यह मनुष्य हिंसा करता है, हिंसा का फल रोग और शोक, दुर्भाग्य और प्रतिहिंसा । यह जानता नहीं है अथवा मानता नहीं है कि हिंसा के कटु फल मुझे भोगने पड़ेंगे।'
वैसे चोरी करनेवाले का प्रत्यक्ष दुःख नहीं दिखाई देता है। आपको ज्ञान
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