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प्रवचन-१८
२३६ और किसी जीव को दु:खी करने का विचार नहीं करना, यह मैत्री और करुणा की प्रथम शर्त है। सभी जीवों को मित्र मानना और सब के दुःख दूर करने की भावना करना, यह है मैत्री और करुणा की दूसरी शर्त | दूसरे जीवों के दुःख देखकर अपना हृदय काँप उठना चाहिए। दूसरों की वेदना अपनी वेदना बन जानी चाहिए। तब अपनी सारी वेदनाएँ तीर्थंकर परमात्मा मिटा देंगे। उनकी करुणा अपने सर्व दुःखों को नष्ट कर देगी। पहले हम दूसरे जीवों के प्रति करुणावंत बने । अपने दुःखों की चिन्ता हम जब तक करते रहेंगे, तीर्थंकर की करुणा के पात्र नहीं बनेंगे।
'परमात्म-अनुग्रह' का दिव्य तत्त्व समझ लो, आपकी सारी दीनता दूर हो जायेगी! 'उपमिति भवप्रपंचकथा' ग्रन्थ में श्री सिद्धर्षि नामक महर्षि ने इस 'परमात्म-अनुग्रह' को बहुत ही मार्मिक ढंग से समझाया है। परमात्म-अनुग्रह यानी परमात्म-कृपा, परमात्म-करुणा । अपना हृदय शुद्ध होना चाहिए। 'उपमिति' ग्रन्थ की एक उपनय कथा :
एक नगर के राजा के मन में आया : 'मेरे नगर में कोई भिखारी नहीं रहना चाहिए।' उसने मंत्री को आज्ञा दी : 'नगर में जो कोई भिखारी हो, उसको राजमहल में बुलाकर वस्त्र, अन्न, भोजन आदि दो और उसका भिखारीपना मिटा दो।' मंत्री ने राजा की आज्ञा का पालन करना शुरू किया। अनेक भिखारियों का भिखारीपना दूर होने लगा। भिखारियों को व्यवसाय मिलने लगा। कुछ दिनों में तो नगर भिखारीरहित हो गया। एक दिन राजा ने महल के झरोखे से नगर के मार्ग पर एक भिखारी को देखा। राजा ने शीघ्र ही मंत्री को कहलाया। मंत्री ने राजपुरुष को भेजकर भिखारी को अपने पास बुलाया और उसको स्नान करवाकर, अच्छे वस्त्र पहनाया। फिर भोजनालय में ले जाकर उसको कहा : 'तेरा जो भिक्षापात्र है, उसमें जो जूनापुराना और गन्दा बासी भोजन है वह बाहर फेंक कर पात्र साफ कर दे। भिक्षापात्र को शुद्ध कर दे, ताकि मैं तुझे उत्तम भोजन उसमें दे सकूँ ।' भिखारी ने सोचा : 'मैं यदि मेरे भिक्षापात्र में से मेरा भोजन फेंक दूं और यह आदमी मुझे भोजन नहीं दे, तो मेरा क्या हो? मैं तो दोनों तरफ से लटक जाऊँ? इसलिए मुझे मेरा भिक्षापात्र खाली नहीं कर देना चाहिए!' ऐसा सोचकर उसने मंत्री से कहा : 'आपको जो देना हो, आप इसी भिक्षापात्र में दो, मैं अपना पुराना भोजन फेंकूँगा नहीं। आपको देना हो तो दो।'
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