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प्रवचन-६
७४ पास बुद्धि का वैभव हो सकता है, तर्कजाल बिछाने में कुशाग्र बुद्धि हो सकती हैं, परन्तु 'धर्म' मात्र बुद्धि से जानने की वस्तु नहीं, मात्र बुद्धि से संसार को बताने की वस्तु नहीं।
अज्ञान थोड़ा दूर हुआ हो, कुछ शास्त्रों का-ग्रन्थों का ज्ञान प्राप्त हुआ हो, राग-द्वेष भी कम हो गये हों, त्याग वैराग्य भी हो; परन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान नहीं हो, आत्मप्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो, वीतरागता नहीं हो-ऐसा मनुष्य ठीक है। कुछ लोगों की दृष्टि में 'महापुरुष' दिखता हो, फिर भी उसकी धर्मस्थापना निर्दोष नहीं हो सकती। उसके द्वारा अभिनव धर्म बताया जाता हो, वह दोषमुक्त हो नहीं सकता। धर्मस्थापना के लिए अज्ञान और राग-द्वेष का समूल उच्छेद होना अनिवार्य है। संसार के सर्व जीवों के प्रति अत्यन्त करुणा होना भी अनिवार्य है।
करुणा, सर्वज्ञता और वीतरागता-ये तीनों उच्चतम तत्त्व जिस आत्मा में पूर्णरूपेण विकसित हो जाएँ, वही आत्मा धर्मतत्त्व का वास्तविक-यथार्थ प्रतिपादन कर सकती है। उसका वचन 'अविरुद्ध' होता है। ऐसी आत्मा ही 'जिन' कहलाती है। श्रमण परमात्मा महावीर ऐसे जिन थे, इसलिए उनका उपदेश अविरुद्ध है! सूक्ष्म, निर्मल एवं उत्कृष्ट बुद्धिवालों को भगवान महावीर का वचन यथार्थ और विरोधरहित प्रतीत होता है। 'जिन' कैसे बना जाता है?
परमात्मा महावीर 'जिन' बने थे। 'जिन' का अर्थ होता है विजेता | महावीर स्वामी विजेता बने थे! अनन्त अनन्त जन्मों से आत्मभूमि पर डेरा डालकर बैठे हुए राग और द्वेष, मोह और अज्ञान इत्यादि असंख्य शत्रुओं के साथ वे लड़े थे, भीषण युद्ध किया था और उन भीतरी शत्रुओं को अपनी आत्मभूमि से खदेड़ दिया था। उन्होंने आत्मस्वतन्त्रता प्राप्त कर ली थी, वे विजेता बने थे। अन्तरंग शत्रुओं के साथ महावीर ने महावीर बनकर जो प्रचण्ड युद्ध खेला था, उसका रोमांचक इतिहास आप पढ़ोगे, तब आपको यथार्थ खयाल आएगा कि 'जिन' कैसे बनते हैं! मात्र भाषण झाड़ देने से और नाचने-कूदने से 'जिन' नहीं बन सकते! तत्त्वप्रतिपादन में सर्वज्ञता अनिवार्य है:
जो जिन नहीं हैं, जिन्होंने अपने राग-द्वेष और अज्ञान का समूल नाश नहीं किया है, उनका वचन 'अविरुद्ध' नहीं हो सकता | मोक्षमार्ग के विरुद्ध होता है, आत्मकल्याण के विरुद्ध होता है, उनके वचन परस्पर विरोधी होते हैं। हाँ,
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