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प्रवचन-८
१०२ दोपहर में मुझे समय नहीं है। भाई, अपना मन पवित्र चाहिए, परमात्मा का पूजन किसी भी समय कर लो...!' आज ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें करनेवाले बुद्धिमान ज्यादा दिखते हैं। ऐसे लोग संसार में सर्वत्र समय की पाबंदी समझते हैं, धर्म के विषय में वे समयातीत बन जाते हैं! क्योंकि ऐसे लोगों को धर्मक्रिया मात्र दिखावे के लिए अथवा किसी के आग्रह से करने की होती है। हृदय में नहीं होता है परमात्मा के प्रति प्रेम या भक्ति का भाव | अपनी अनुकूलता से धर्मानुष्ठान करने वालों में ज्यादातर प्रीति-भक्ति का अभाव ही दिखेगा | बम्बई जैसे बड़े नगरों में तो अब सूर्योदय से भी पूर्व भक्त लोग मन्दिर में पहुंचकर पूजन करने लगते हैं! न पूजनपद्धति का ज्ञान, न भक्तिभाव का उल्लास । 'वही रफ्तार बेढंगी', वही गतानुगतिकता! परमात्मपूजन में न एकाग्रता, न प्रसन्नता, न पवित्रता! जैसे गए थे मन्दिर में, वैसे ही निकले मन्दिर से कोरे के कोरे | कहते हैं कि 'कुछ पुण्य तो कमाते होंगे ये लोग?' कमाने दो उनको पुण्य | कमाते होंगे पुण्य, परन्तु पाप तो कमाते ही हैं। अविधि और अनादर से पापकर्म बंधते ही हैं। पाप-पुण्य की बात अभी जाने दें, इस जीवन पर परमात्मपूजन के श्रेष्ठ धर्मानुष्ठान का क्या प्रभाव पड़ा?
१. दुःखों के भय से मुक्त बने? २. गुणवान पुरुषों के प्रति अद्वेषी बने? ३. धर्मानुष्ठानों में, पवित्र कार्यों में हमेशा उल्लसित बने?
यदि आप विधिपूर्वक 'यथोदितं' परमात्मपूजा करते रहो तो ये तीन प्रभाव आपके जीवन पर अवश्य पड़ेंगे। मुझे इस विषय में महामंत्री पेथड़शाह के जीवन का एक प्रसंग याद आता है। मालवदेश के यशस्वी महामंत्री परमात्मा जिनेश्वरदेव के परम उपासक थे। महामंत्री पेथड़शाह का परमात्मपूजन :
उनके जीवनचरित्र में महत्त्वपूर्ण धर्मानुष्ठान परमात्मपूजन का ही पढ़ने को मिलता है। जबकि उनके जीवन में अपूर्व गुणसमृद्धि के दर्शन होते हैं। इससे यह फलित होता है कि एक भी धर्मानुष्ठान विधिपूर्वक, आदरपूर्वक और भावपूर्ण हृदय से किया जाता है तो उसका अपरिमेय प्रभाव जीवन पर पड़ता है। हमेशा मध्याह्नकाल में परमात्मपूजा किया करते थे। __ पूजन का समय भी मध्याह्न ही है। स्नानादि से शरीरशुद्धि कर, शुद्ध और स्वच्छ वस्त्र पहनकर, पूजन की यथोचित सामग्री लेकर वे परमात्ममंदिर जाते
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